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________________ ! २१५ अर्थ- जो भव्य जीव भगवान जिनेंद्रदेव के सामने पूर्ण अक्षतां के पुंज चढाता है अक्षतों से भगवान की पूजा करता है वह पुरुष चक्रवर्ती का पद पाकर अक्षय रूप नव नित्रियों को प्राप्त करता है । चक्रवर्ती को जो विवां प्राप्त होती है उनमें से चाहे जितना सामान निकाला जाय निकलता हो जाता है कम नहीं होता । भाव-संग्रह अलि चुंविएहि पुज्जद्द जिणपयकमलं च जाइमल्लीहि । सो हवइ सुरवरदो रमेइ सुरतरुबर वर्णो || अलि चुम्बितैः पूजयति जिनपद कमल व जातिमल्लिकैः । सभवति सुरवरेन्द्रः रमते सुरतरुवरवनेषु ॥ ४७३ ॥ अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेंद्रदेव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर धूम रहे हैं ऐसे चमेली मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेकों होता है और वह वहां पर चिरकालतक स्वर्ग में होने वाले कल्प वृक्षों के वनों में ( बगीचों मे ) क्रीडा किया करता है । दहिखोर सप्पि संभब उसम चरुरगहि पुज्जए जिणवरपाय पओरुह सो पावद्द उक्तमे मोए ॥ जो I दधि क्षीर सर्पिः सम्भवोत्तम चहकः पूजयेत् योह | जिनवर पादपयोरुहं से प्राप्नोति उसमान् भोगान् ।। ४७४ ।। अर्थ- जो भव्य पुरुष दही दूध घी आदि में बने हुए उत्तम नैवेद्य से भगवान जिनेंद्रदेव के चरण कमलों को पूजा करता है उसे उत्तमोत्तप भोगों की प्राप्ति होती है । कप्पूर तेल्ल पर्यालय मंद मरुपह्यणडिदीहि । पुज्जर जिण पय पोमं ससि सूरवि सम तणुं लहई || कर्पूर तेल प्रज्वलित मन्द मरुत्प्रहतनटितदीपैः । पूजयति जिन पद्मं शशिसूर्यसम तनुं लभते ॥ ४७५ ।। अर्थ- जो दीपक कपूर घी तेल आदि से प्रज्वलित हो रहा है औ मन्द मन्द बार से नाच ला रहा है ऐसे दीपक से जो भव्य पुरुष
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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