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भाव-संग्रह
आगे अष्ट द्रव्यों के नाम और उनसे होनेवाली पूजा का फल
बतलाते है ।
पसमाइ रथं जिषु ि भिंगारणाल णिग्गइ भतभति कबुरिया ॥
प्रशमति रजः अशेषं जनपद कमलेषु दत्तजलधारा । भंगारनाल निर्गता श्रमव मुंगेः कर्तुरिता ॥ ४७० ||
अर्थ- सबसे पहले जल की धारा देकर भगवान की पूजा करनी चाहिये । वह जल की धारा शृंगार ( झारी ) की नाल से निकलनी चाहिये तथा वह जल इतना सुगंत्रिय होना चाहिये कि उस पर भ्रमरः आजाय और जल धारा के चारों ओर घूमते हुए उन भ्रमरों से वह जल की धारा अनेक रंग की दिखाई देने लगे ऐसी जल की धारा भग वान के चरण कमलों पर पड़नी चाहिये। इस प्रकार जल की धारा से भगवान की पूजा करनेसे समस्त पाप नष्ट हो जाते है अथवा ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म शांत हो जाते है ।
चंदणसुअन्य ले ओ खिणवर भरणेसु जो कुणि भविओ । लहs त विक्कि रिय सहावसुगंधयं अमलं ॥
चन्दन सुगंध लेप जिणधर चरणेषु यः करोति भव्यः । लमते तनुं वक्रयिकं स्वभावसुगन्धकं अमलम् ॥ ४७१ ।।
अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों पर जिन प्रतिमा के चरण कमलों पर ) सुगंत्रित चन्दन का लेप करता हैं उसको स्वर्ग में जाकर अत्यन्त निर्मल और स्वभाव से ही सुगंधित वैकिकि शरीर प्राप्त होता है । भावार्थ- चन्दन से पूजा करने वाला भव्य जीव स्वर्ग में जाकर उसम देव होता है ।
पुष्णाण पुर्व में हि य अक्खए जेहि देवपयपुरओ ।
तणाव जहाजे सुखए चक्कयतितं ॥
पूर्णः पूजयेच अक्षतपुंजे देवपद पुरतः ।
लभ्यन्ते नव निधानानि सु अक्षयानि वर्षातित्वम् ।। ४७२ ।।