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________________ २१८ ध्याने ध्यात्वा पुनः माध्यानिक वंदनामत्र कृश्वा । उपसंहृत्य विसर्जयेत् यान् पूर्वमाहूतान् देवान् ।। ४८१ ।। अर्थ - इस प्रकार अरहंत भगवान का ध्यान कर माध्यान्हिक वंदना करनी चाहिये । तदनंतर उपसंहार कर पहले आव्हान किये हुए देवों का विसर्जन करना चाहिये । आगे पूजा का फल कहते है । एण विहाणेण पुडं पुज्जर जो कुणइ भति संजुत्तो । सो ss णियं पार्श्व बंधइ पुण्णं तिजय खोहं ॥ भाव-संग्रह एतद् विधानेन स्फुटं पूजां यः करोति भक्तिसंयुक्तः । सहति निजं पापं बध्नाति पुण्यं त्रिजगत्क्षोभम् ।। ४८२ ।। अर्थ- इस प्रकार जो भव्य पुरुष भक्ति सहित ऊपर लिखी विधि के अनुसार भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह अपने समस्त पापों को नाश कर देता है तथा तीनो लोकों को क्षोभ उत्पन्न करने बाले पुण्य का बंध करता है । उप्पज्जई दिवलोए भुंजइ भोए मणिच्छिए इठे । बहुकालं चत्रिय पुणो उत्तम मणुयत्तणं लहुई || उत्पद्यते स्वर्गलोके मुंक्ते भोगान् मन इच्छितान् इष्टान् । बहुकालं व्युत्वा पुनः उत्तममनुष्यत्वं लभते || ४८३ || अर्थ - तदनंतर आयु पूर्ण होने पर वह स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है, वहां पर अपने मन की इच्छानुसार अनेक प्रकार के इष्ट भोगों का अनुभव करता है तथा चिरकाल तक उन भोगो का अनुभव करता रहता है। आयु पूर्ण होनेपर वहां से च्युत होता है और मनुष्य लोक मे आकर उत्तम मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है । होऊण चक्क वट्टी चउदह रयणेहि णव णिहाणेह पालिय छखंडधरा भुजिय मोए गिरिठ्ठा । भूत्वा चक्रवर्ती चतुर्वशरत्नर्नय निधानैः । पालयित्वा घट्खण्डधरां भुक्त्वा भोगान् निर्गरिष्ठान् ॥ ४८४ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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