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________________ भात्र-मंग्रह अर्थ- जब यह आत्मा निश्चल ध्यानके द्वारा अपने आत्मा में लीन हो जाता है उस समय उस योगी के तन्द्रा, निद्रा, क्षुधा पिपामा आदि सब नष्ट हो जाते है तथा नन्द्रा, निद्रा, क्षुवा आदि के नष्ट होने मे फिर वह योगी भनक थगी में आरुह हो जाता है। भावार्थ- श्रेणी दो प्रकार की है एक उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक धेगी। उपशम श्रेणी चढनेवाला योगी अपने चारित्र मोहनीय कर्मों का उपशम करना जाता है परन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में जाकर उन कमो का उदय होने से नाच का गुमन्यानों में आ जाता है । क्षपक श्रेणी चढ़नेवाला योगी अपने चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षय करता जाता है और फिर दशवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान मे पहुँच जाता है तथा वारहवें गणरथान के अंत में ज्ञानावरण दर्शनाकरण अन्तराय कोका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करलेता है और इस प्रकार वह तेरहवें गुण म्थान में पहुंच कर अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यही बात आगे दिखलाते हैं । खवएसु य आरुढो णिवाईफारणं तु जो मोही । जाइ खत्रं हिस्सेसो तक्खीणे केवलं गाणं ॥ १०७ ॥ क्षपकेषु च आरुढो निद्रादिकारणं तु यो मोहः । याति क्षयं निःशेषः तत्क्षये केवलं ज्ञानम् || १०५ ।। अर्थ- जब वह योगी अपने निश्चल भ्यान के द्वारा क्षपक श्रेणी में आरूढ हो जाता है तब उसका निद्रा तन्द्रा क्षघा आदिका कारण मोहनीय कर्म सर्वथा पूर्ण रुपसे नष्ट हो जाता है । और उस मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट होने से उस महा योगी के केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। तं पुण केवल गाणं सहदोसाण वह पासम्मि । ते दोसा पुण तस्सहु छुहाइया णत्यि केलियो ।। १०८ ॥ तत्पुनः केवलनानं दशाष्टदोषाणां भवति नाशे । ते दोषाः पुनस्तस्य हि क्षुधाविका न सन्ति केवलिनः ।। १०८ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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