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________________ भाव-संग्रह गुत्तितजुत्तस्स य इन्दियवावाररहियचितस्स | भाविदियमुक्खस्स xय जीवस्स य णिक्कलं झाणं ।। १०४ ॥ गुप्तित्रययुक्तस्य च इन्द्रियव्यापाररहितचिसस्य । भावेन्द्रियमुख्यस्य च जीवस्य निश्चलं ध्यानम् ।। १०४ ।। अर्थ- जो निग्रंथ मुनि मन, वच, काय के समस्त व्यापारों को रोककर, मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुपित इन तीनों गुप्तियों का पालन करते है तथा जिनका चिन इन्द्रियों के व्यापार से सर्वथा रहित होता है और जिनके भावेन्द्रिा की मुख्यता रहती है ऐसे योगी पुरुषों के निश्चल ध्यान होता है। झाणेण तेण तस्स हु जीव मणस्साण लमरसोयरणं । समरसभावेण पुणो संचित्ती होड़ णियमेण ।। १०५ ।। ध्यानेन तेन तस्य हि जीव मनाणसमरसीकरणम् । समरसभावेन पुनः संवित्ति भवति नियमेन ।। १०५ ।। अर्थ- उस ध्यान के द्वारा उन योगि का आत्मा और मन दोनों एक रुप हो जाते है, दोनों समान रसरुप परिणत हो जाते है तथा उस समरसी भावसे उन योगी के नियममे मंबित्ती हो जाती है। भावार्थ- अपने आत्माका अपने ही आत्मामें लोन हो जाना विनी कहलाती है । वह संवित्ती निश्चल ध्यान से ही होती है । आगे फिर भी यही दिखलाते हैं । संवित्तीए वि तहा तण्हा णिहा य छुहा य तस्स जस्संति ! णट्ठसु तेसु पुरिसो खवयस्णि समारुहइ ।। १०६ ॥ संवित्तापि तथा तृष्णा निवाक्षुधा च तस्य नश्यति । नष्टेषु तेषु पुरुषः क्षपकणि समारोहति ।। १०६ ।। ___ x भावेंन्द्रिय का अर्थ चेतना है। यह केवल ध्यान का लक्षण है । केवल ज्ञान के पहली अवस्था का है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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