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भाव-संग्रह
पर्याय में उत्पन्न हुई है जो पशु कहलाती है. घारा मस खाती हैं जो विवेक रहित है. हित-अहित का कुछ विचार नहीं कर सकती और विष्टा भी भक्षण करली है ऐसी गाय भला देवता कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकती।
अहवा एसो धम्मो विट्ट भनखंतया वि णमणीया । तो कि वज्झइ दुज्मइ ताउिज्जय दोहदंडेन ॥ ५१ ।। अथवष धर्मो विष्ठां भक्षयन्त्यपि नमनीया ।
तहि कि वध्यते दुह्यति ताउचते दीर्घदण्डेन ।। ५१ ।।
अर्थ- यदि आप लोगों ने गड़ी मान लिया है कि गार वाहे भिष्टाभक्षण करती रहे तथापि वह वन्दनीय है तो फिर उसे क्यों बांधते हो, क्यों दुहते हो और बडी लकडी लेकर क्यों उसे मारते हो ।
भावार्थ- जो देवताके समान वन्दनीय है तो फिर उसे कती नहीं बांधना चाहियं, कभी नहीं मारना चाहिये और कभी नहीं दुहना चाहिये ।
आगे और भी दिखलाते है । सुरही लोयस्सागे वक्खाणय एस देषि पञ्चक्खा । सम्धे देवा अंगे इमिए णिवसंति पिश्यमेण ॥ ५२ ॥ सुरभिः लोकस्याने कथ्यते एषा देवी प्रत्यक्षा । सर्वे देवा अंगे अस्या निवसन्ति नियमेन ॥ ५२ ।। पुण रवि गोसवजणे मंसं भक्खंति सा वि मारित्ता । तस्सेव बहेण फुडं ण मारिया होति ते देवा ॥ ५३ ॥ पुनरपि गबोत्सवयज्ञे मांस भक्षयन्ति तामपि मारयित्वा ।
तस्या एवं वधेन स्फुटं न मारिता भवन्ति ते देवाः ॥५३ ।।
अर्थ- जो लोग सब लोगों के सामने यह कहते है कि यह गाय प्रत्यक्ष देवता है इसके शरीर में नियम रूपसे सब देवता निवास करते है । ऐसा कहते हुए भी वे लोग गवोत्सव यज्ञ में वा गो यज्ञमें उसी गाय को मारकर उसका मांस खा जाते है । क्या उस गायके मारने से समस्त देवों का वध नहीं हो जाता ! अवश्य हो जाता है ।