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भाव-सग्रह
पचगव्यं तु तैरिष्टं गोमांसे कापथः कृतः ।
सविसजा युपादेका प्रतिवादिषु रोचना ।। ब्राह्मण लोग पंचगव्य मानते है परन्तु गोमांस इसमें भी वजित है लथा उसी गाय के पित्त से उत्पन्न हुआ गोरोचन वे लोग अपने प्रतिष्ठादिक के काम में ले आते है।
इति हेतोन वक्रव्यं सादृश्यं मांसधाग्ययोः ।।
मांसं निन्द्यं न धान्यं स्यात् प्रसिद्धवं श्रुतिर्जनः ।।
उन सब कारणों को समझ कर यह कभी नहीं कहना चाहिये कि मांस और दोनों समान है। मांस और धान्य कभी समान नहीं हो सकते। मांस महा निध है और धान्य नहीं है । यह वान गब लोग जानते है । इसमें किसी प्रकार का मंदेह नहीं है।
इस प्रकार संक्षेप से मांस के दोष बतलाये है। आग मोयोनि बन्दना के दोष दिखलाते है। बंदइ गोजोणि सया तुपडं परिहरइ भणिवि अपवित्तं । षिवरीयामिणिबेसो एसो फुट होई मिच्छोवि ॥ ४९ ।। वन्दते गोयोनि सा तुण्डं परिहरति भणित्वाऽपवित्रम् । विपुरोताभिनिवेश एष स्फुटं भवति मिथ्यात्वमपि ।। ४९ ॥
अर्थ-- जो लोग गायके मुखको अपवित्र कहकर छोड़ देते है और उनकी योनि की वंदना करते है यह उनका विपरीत श्रद्धान है इसीको प्रगट वा साक्षात् मिथ्यात्व कहते है।
धागे योनि वन्दना के दोष दिखलाते है। पावेण तिरियजम्मे उम्वण्णा तिणयरो पसू गायो | अविवेया विट्ठासी सा कह देवत्तणं पत्ता ॥ ५० ॥ पापेन तिर्यग्जन्मनि उत्पन्ना तृणचारिणी पशुः गी ।
अविवेफिनी विष्ठाशिनी सा कथं देवत्वं प्राप्ता ।। ५०॥ अर्थ- जो गाय अपने पाप कर्मके उदयसे तिर्यच्च योनि मे पशु