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भाव-मंग्रह
भावार्थ- गवाला गो बत्र का विषय वेदादि शास्त्रों में प्राय अनेक स्थलमें आता है । कृष्ण यजुवदीय तैत्तिरीय ब्राह्मण अप्टक ३ अध्याय ५ अनबाक नवम में लिावा है कि ।। अज जातीय अविजातीय और आरण्य में पशु मुख्य नहीं है किन्तु गो जातीय पशुको ही सर्व पशुके स्नान में प्रयोग करना । इसलिये उत्तम दिन में मो जातीय पशुका आलंभन करना । तथा च तत्पाठः तदाहः-अपशवो वा एते यदजावयश्चारण्याश्च एते व सर्व पशवः यद्नव्या इति । गठ्यानपशनुत्त मेहन्याल भते । तेन वा भयान पशुगर इशि :
इसी का अर्थ मायण भाज्य में इस प्रकार लिखा है
तत्र पशु विषय रहस्याभिजा एबमाहुः । अजजातीय । अविजातीया आरण्याश्च | सन्ति ते मुख्याः पशवो न भवन्ति । किन्तु गो जातीया एत एवं मर्वे पशत्रः सर्वपशुस्थाने प्रयोक्तव्या इति । तस्मादुत्तमेऽहनि गो जातीयान् पशूनालभेत । तेनैव गवालभनेन ग्रान्यानारण्यांश्चोभयान प्राप्निोति ।।
खदिर गृह्यसूत्र पटल ३ खण्ड ४ में भी गाय का हवन करना लिखा है।
आगे श्रोत्रिय लोगों के लिए कहते हैं । सोत्ति य गमधुब्बुढा मंस भक्खंति रमिहि महिलाओ । अपवित्ताई अशुद्धादेहच्छिदाइ वदति ।। ५४ ॥ श्रोत्रिया गर्वोत्कटा मांस भक्षयन्ति रमन्ते महिलाः ।
अपवित्राणि अशुखानि देहच्छिद्राणि बन्वन्ते ।। ५४ ।। अर्थ- अपने अभिमानसे मदोन्मत्त हुए य श्रोत्रिय लोग मांस भक्षण करते है, स्त्रियोंके साथ संभोग करते है तथा गोयोनि ऐसे अपवित्र और अशुद्ध ऐसे शरीर के छिद्रों की वदना करते है ।
आगे श्रेत्रियका यथार्थ लक्षण कहते हैं ।
हो सोसियो भणिज्जइ णारीकडिसोत्त वज्जिओ जेण । जो तु रमणासतो ण सोत्तिओ सो जडो होई ॥ ५५ ।।