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________________ ३६ स श्रोत्रियो भव्यते नारीर्काटिस्रोतो वजितं येण । यस्तु रमणासक्को न श्रोत्रियः स जडो भवति ॥ ५५ ॥ अर्थ- जिस मदापुरुषने स्त्री के कटिभाग के स्रोतका सर्वथा त्याग कर दिया है अर्थात् जो कभी स्त्री सेवन नहीं करता, सदाकाळ ब्रह्लाचारी रहता है उसको श्रोत्रिय कहते हैं। जो पुरुष स्त्री सेवन करने में आसक्त रहता है वह कभी पोषिय नहीं हो सकता उसे जड़ कहना चाहिए । श्रोत्रिय का आजकाल क्या अर्थ करते है -- भात्र-संग्रह या दिवाने है । अहवा पसिद्धिवयणं सोत्त सेवए जेण । मुत्तप्पवहणदारं सोत्तियओ तेण सो उत्तो ।। ५६ ।। अथवा प्रसिद्ध वचनं स्रोतो नारिणां सेव्यते येन । मूत्रप्रवाहद्वारं श्रोत्रियः तेन स उक्कः ॥ ५६ ॥ अर्थ- आज कल श्रोत्रियों के लिये प्रसिद्ध बाल यह देखी जा रही हैं कि जो पुरुष स्त्रियों के स्त्रोतका सेवन करता है वही श्रोत्रिय माना जाता है । भावार्थ- वास्तविक श्रोत्रिय का लक्षण तो ऊपर लिखा है । श्रोत्रिय सर्वथा ब्रह्मचारी होता है । मद्य मांस आदि निद्य पदार्थोंका सेवन कभी नहीं करता और न कभी किसी जीव की हिंसा करता है। परन्तु जो लोभी है, लालची है ठग है, मद्य मांस भक्षण का अभिलाषी और स्त्री सेवन में आसक्त है वही पुरुष बनावटी श्रोत्रिय है तथा मांस भक्षण के लिये पशुयज्ञ का विधान करना है अथवा श्राद्ध आदि में पशु हत्या का विधान करता है। इस प्रकार वह स्वयं भी नरक जाता है और अन्य यजमानों को भी ले जाता है । आगे ऐसे विपरीत मिथ्यात्व का फल दिखलाते हैं । इय विवरीयं उस मिच्छतं पावकारणं विसमं । सेण पत्तो जीवो णरय गई जगह नियमेण ॥ ५७ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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