SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-संग्रह इति विपरित उक्त मिथ्यात्वं पापका रणमं विषमम् । तेन प्रयुक्तो जीवो नरकति याति नियमेन ॥ ५७ ॥ अर्थ-- इस प्रकार जो मिथ्यात्व महा पारका कारण है और अत्यन्न विषम है मे बिपरित मिथ्यावा म्बल कहा । जो पुरुष इम ' विरित मिथ्यात्वमें प्रवृत्त होता है वह नियममें मग्कर नरक में जाता अवि सहइ तत्थ दुक्खं सक्करपमुहणयविवरेसु । कह सो सम्ग पावइ णिहा पसू खद्धपलगासो ॥ ५८ ॥ अपि सहते तत्र दुःखं शर्कराप्रमुखनरकविवरेषु । कथं स स्वर्ग प्राप्नोति निहत्य पशून् खादितपलग्नासः ।। अर्थ- नरक में जाकर वह प्राणी रत्नप्रभा, शकरा प्रभा आदि मानों नरकों की भूमियों में चा किमी एक भूमि अत्यन्त महा दुःख सहन करता है सो ठीक ही है। क्योंकि जो पशुओं को मारता है और उनका मांस भक्षण करता है उसको स्वर्ग की प्राप्ति भला कैसे हो सकती है ? अर्थात कमी नहीं हो सकती । उसको तो नियमसे नरक की प्राप्ति होगी। जह कहब तत्थ णिगई उत्पज्जइ पुणु वि तिरियजोणिसु । मारियह सोत्तिएहि णित्ताणो पुण वि अण्णम्मि ।। ५९ ।। यदि कथमपि ततो निर्गच्छति उत्पद्यते पुनरपि तिर्यग्योनिष मार्यते श्रोत्रियः निस्त्राणः पुनरपि यो ।। ३९ ॥ अर्थ- यदि किसी प्रकार वहां से निकलता भी है तो फिर उमी तिर्यात्र योनि में उत्पन्न होता है और अन्य श्रोत्रियों के द्वारा यज्ञ में मारा जाता है वहां पर उसकी कोई रक्षा नही कर सकता। णियभासाए जंप में मंतो कहइ आसि मे रइयं । एवं वेयबिहाणे संपत्ता दुग्गई तेण ॥ ६० ॥ निज भाषायां जल्पति मे मे कथयति आसीत् मया रचितम् । एवं वेदविधानेम सम्प्राप्ता दुर्गतिः तेन || ६० ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy