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________________ भाव-संग्रह हैं। पुरुष जीव को कहते है और प्रकृति उसमे भिन्न मानने है । पुरुष को वा जीव को वे लोग कर्ता भोक्ता नहीं मानते यही वात आगे दिखलाते है। जीवो सया अकत्ता मुत्ता ण है होइ पुण्ण पाचस्स । इथ पडिऊण लोए गहिया वहिणी सधूया वि ।। १७९ ।। जीवः सवा अकर्ता भोक्ता नहि भवति पुण्यपापयोः । इति प्रकटय लोके गृहीता भगिनी स्वसुतापि ।। १७९ ।। अर्थ- यह जीव वा पुरुप सदा काल अकर्ता रहता है न बह पुण्य करता है और न पाप करता है । इसी मान्यतानुसार पाप के फल का भोक्ता भी नहीं है । इस प्रकार प्रगट करता हआ तो अपनी बहिन और बेटी को भी ग्रहण कर लता है। आगे आचार्य सांख्य मान्यता के प्रति कहते है। एए विसयासत्ता करगुम्मुत्ता य जीवदयरहिया | परतियधणहरणरया अगह्यि अम्मा दुरायारा ॥ १८० ॥ एते विषयासक्ताः फगुमत्ताश्व जीवदयारहिताः । परस्त्रीधनहरणरता अगृहीतधर्मा दुराचाराः ।। १८० ।। अर्थ- आचार्य कहते है कि ऐसे लोग सदा काल विषयों में आसक्त रहते है, काम सेवन के लिये उन्मत्त रहते है, जीवों की दया पालन नहीं करते, परस्त्री और पर धन हरण करने में सदा लग रहते है, अत्यंत दुराचारी है और यथार्थ धर्म का स्वरूप कभी स्वीकार नहीं करन । ण मुगति सयं धम्मं अनुणिय तच्चत्थयार पठभट्टा । पउरकसाया माई कह अण्णेसि फुडं वित्ति ॥ १८१ ।। न जानन्ति स्वयं धर्म अज्ञाततत्त्वार्थाचार प्रभ्रष्टाः । प्रचुरकषाया मायाविनः कथं अन्यान् स्फुटं युवन्ति ।। १८१ ॥ अर्थ- आचार्य कहते है जो सांख्य लोग स्वयं धर्म का स्वरूप नहीं जानते न तत्वों का अर्थ वा स्वरूप समझते है वे स्वयं सदाचार से
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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