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है। यदि
मोहनीय को कैसे बंधकर को ही स्थिति जध का कारण मानेंगे तो दर्शनमोहनीय का स्थिति बंध मात्र कषाय के रहने पर ७० कोड़ा कोडी सागर का और मिथ्यात्व मे १६ प्रकृतियों का जो बब होता है वह नहीं हो सकता है। अनंतानुबंधी भी मिथ्याल के सहाय से ही अनंत संसार का कारण हो सकती है अन्यथा नहीं ।
अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ कषाय आत्मनः सम्यक्त्व परिणाम कषन्ति अनंत संसार कारणत्वात् अनन्तं मिथ्यावं, अनंत भव संस्कार कालं वा अनुबन्धन्ति सुघटयन्तीत्यनन्तानुबन्धिन इति ॥ ( गो. सार. टीका माथा २८३ ।। )
अनंतानुबंधी क्रोध - मान-माया - लोभ कषाय आत्मा के सम्यक्त्व परिणामको घातती है क्योंकि अनंत संसार का कारण होने से मिथ्यात्व कर्म को अनंत कहते है । उस अनंत भव के संस्कार काल को बांधती है इसलिये उसे अनंतानुबंधी कहते है । एक क्षण के लिये भी सम्यक्श्व हो जाता है तो संसार अनंत नहीं रहता है संसार परीत हो जाता है जो कि अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र है ।
न सम्यक्त्व समं किञ्चित् त्रैकाल्यं त्रिजगत्यपि । श्रेयोsaure मिथ्यात्व समं नान्यत्तन् भूताम् ||३४||
In the three periods of time and the three worlds there is nothing more auspicious than Right Faith for the living beings, nor any thing more inqntaacious than a false conviction
( रत्नकरण्ड श्राव )
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सावय
अट्ठ मूल गुण जुत्तो सत्तविणं परिक्को
दिवा भोयणं सुद्ध जलं देव दंसणं सावय धम्मो ।। ११ ।।
समण
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अठ्ठावीस गुण जुलो णिम्मम झाणज्यण संयुतो । परिसह उपसभा जयी समयारुवी हवई समयो ।। १२ ।।