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भूतो न भविष्यति । जीवकी अत्यन्त आध्यात्मिक पुस्त एवं निम्नश्रेणीय अवस्था मिथ्यात्व गुणस्थान है। इस पतित आत्मान्धकार अति नीच अवस्था में जीव अनादि काल से पतित होकर रच पच रहा है । जव अनुकूल द्रव्य, क्षत्र, काल, भान रूपी निमित्त एवं उपादान का सम्यक् समन्वय रुप समवाय होता है एवं सद्गुरु का उपदेश मिलता है तब जाकर उसकी सुप्त अवस्था नष्ट होकर, अर्थात् जाग्रत होकर खडा होता है एवं स्वयं को अवलोकन करता है। एवं स्वस्वरुप को प्राप्त करने के लिये मोक्ष की ओर उत्साह पूर्वक आग पुरुषार्थ मे सुदृढ कदम उठाता है । आगे बढ़ते बढ़ते मोक्ष महल को प्राप्त करता है । इस अलोकिक मोक्ष महल की यात्रा को ही गणस्थान कहते हैं ।
१) मिथ्यास्व गुणस्थान :
सत्य से बिपरीत मान्यता, श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास रुप परिणाम ब भावोंको मिथ्यात्व कहते हैं। सत्य का पूर्ण साक्षात्कार सर्वज्ञ बीतरागी देव है । सर्वज्ञ भगवान ने दिव्य ध्वनी मूलक उस परम सत्य का प्रमाण नय, निक्षपों के द्वारा प्रतिपादन किय है, उनके द्वारा प्रतिपादित सत्य अर्थात जो उनके द्वारा कहे हुए द्रव्य, तत्व, पदार्थों में विश्वास नहीं। श्रद्धा नहीं, वह मिथ्यादृष्टि है क्योंकि उसकी श्रद्धारूप दृष्टी विपरीत होन के कारण बह पदार्थ को भी विपरीत रूप श्रद्धान करता है सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचन्द आचार्य गोभटसार में कहते है :
मिच्छाइट्टी जीवो उवा; पवयणं ण सद्दर । सहवि असम्भावं उवइछे वा अणुवइठ्ठं ॥ १८॥
( गो. सार) The wrong-believing soul does not believe in the noble dectrine preached (by the conquerona) and he
eves in the nature of things ab it really is not whether it be preached or not hy (the teaching or ('seription of ) any one.
मिथ्यादृष्टिजीवः उपदिष्टं - अहंदादिभियाख्यातं, प्रवचन आप्तागम पदार्थत्रयं न श्रद्दधाति-नाप्युपगच्छति । प्रकृष्टं वचनं यस्यासों