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________________ भाव-संग्रह १९३ भूजोपकरणानि च पाश्र्व सनिघाय मंत्रपूर्वेण । स्नानेन स्नात्वा आचमनं करोति मंत्रेण ।। ४२७ ।। अर्थ... तदनंतर पूचा के समस्त उपकरण अपने पास रखना चाहिव फिर मंत्र स्नान करना चाहिये और फिर मंत्र पुर्वक आचमन कारना चाहिय । आसपठाणं किच्चा सम्मत्तयुष्य तु झाइए अप्या। सिखि मंडल मज्झत्थं जालासयजलियणियदेहं । आसनस्थानं कृत्वा सम्यकपूर्व तु ध्यायतु आत्मानम् । शिखिमण्डलमध्यस्थं ज्वालाशतज्वलितनिजदेहम् ।। ४२८ ।। - अगि साल में अपना आसन लगा कर बेठे और फिर सम्यक् रीति से परमात्मा का ध्यान करे । उस ध्यान मे अग्निमंडल मे निकलती हुई सौ ज्वालाओं से अपना शरीर जल रहा है ऐसा चितवन करना चाहिये । सबसे पहले अग्निमंडलका चितवन बारना चाहिये एक त्रिकोण आकार का यंत्र बनाना चाहिये उसके तीनों ओर सो रेफ या रकार वनाना चाहिये । उन रकारों के ऊपर आधे रकार का आकार और जनाना चाहिये : इसको बर्द्ध रेफ की ज्वाला कहते है। ऐसे रेफों से व्याप्त अग्निमंडल के मध्य में अपने शरीर को स्थापन करना चाहिये तथा ध्यान कर अपने शरीर के मल को दग्ध करना अर्थात जलाना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है " ओं हों अर्ह भगवते जिनभास्कराय बोधसहस्र किरणर्मम किरणन्धनस्य द्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा।" दाभ के छोटे पूले को दीपक से सेक लेना चाहिये और फिर उस दाभ को अग्निमंडल में भस्म कर देना चाहिये । सो ही लिखा है अग्नि मंडलमध्यस्थं रेफलिाशताकुलः । सर्वांगदेशध्यात्वा ध्यान दग्धं वपुर्मलम् ॥ अर्थात- अग्निमंडल के मध्य में बैठ कर सौ रेफ ज्वालाओं से व्याप्त होकर तथा सब शरीर से ध्यान के द्वारा शरीर के मल को जलाना चाहिये ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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