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भाव-संग्रह
पुण्यस्य कारणं स्फुट प्रथमं ला भवति देवपूजा च । कर्तव्या भकत्या श्रावक वर्गण परमया ।। ४२५ ।।
अर्थ- पुण्य के कारणों में सबसे प्रथम भगवान् जिनेंद्रदेव की पूजा करना है, इस लिये समस्त श्रावकों को परम भक्ति पूर्वक भगवान जिनेंद्र देव की पूजा करना चाहिये ।
अब आगे पूजा की विधि कहते है:
फासुय जलेण व्हाइय णिवसिय वत्थाइ गपि तं ठाणं । इरियावहं च सोहिय उवविसिय पडिमआसेण ।। प्रासुक जलेन स्नात्वा निवेश्य वस्त्राणि गन्तव्य तत्स्थानम् । ईपिथं च शोधयित्वा उपविश्य प्रतिमासनेन ।। ४२६ ।।
अर्थ- पूजा करने वाले गृहत्य को सबसे पहले प्रासुकः जल में म्नान करना चाहिय मुद्ध वस्त्र पहनाना चाहियं फिर पूजा करने के स्सान पर जाना चाहिये तथा जाने समय ईयापथ शुद्धि से जाना चाहिये और वहां जाकर पद्म, सन से बैठना चाहिये ।
पुजाउवयरणाइ य पासे सण्णिहिय मंतपुब्वेण । ण्हाणेणं व्हाइत्ता आचमणं कुणउ मंतेण ।।
१. पद्मासनसमासीना नासाग्रन्यस्तलोचन: । ___ मौनी वस्त्रावृतास्योऽयं पूजां कुर्याज्जिनेशिनः ।।
अर्थात्- पूजाकरने बाला पद्मासन से बंठ कर पूजा करे अपनी दृष्टि नासिक पर रक्स्खे, मौन धारण करे, और वस्त्र से अपना मुख ढक लवे ।
२- ओं ही अमृते अमृतो वे अमृत वार्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय स. मं ल्की ल्कों वल भलं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय हं झं झवी ६वीं ह् स: असि आ उ सा हूँ नम: स्वाहा । यह अमृत स्नान मंत्र है । ओं ही झ्वी श्वी वं में हं सं तं पं द्रां द्रीं ह सः स्वाहा यह आचमन मंत्र है ।