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________________ भाव-संग्रह ____ १९१ तत्यवि विविहे भोए परखेतभवे अणोवमे परमे । भुज्जिता णिविण्णो संजमयं तेव गिण्हेई ।। तोपि विविधान् भोगान् नरक्षेत्र भवाननुपमान् परमान् । भुक्त्वा निविष्णः संयमं चैव गृह्याति ॥ ४२२ ॥ अर्थ- उस मनुष्य लोक में भी उत्पन्न होकर वह जीव मनुष्य क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले सर्वोत्कृष्ट अनुभव नशा अनेक प्रकार के भोगों का अनुपम करता है और फिर संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर संयम धारण कर लेता है। लद्धं जइ चरम तणु चिरकय पुग्णण सिझए णियमा । पाविय केवल णागं जह खाइय संजम सुद्धं ।। लग्धं यदि चरमतनं चिरकृतपुण्येन सिद्धयति नियमात् । प्राप्य केवलज्ञानं यथाल्यात संयमं शुद्धम् ।। ४२३ ।। अर्थ- यदि वह जीव अपने चिर काल के संचित किये हुए पुण्य कर्म के उदय से चरम शरीरी हुआ तो वह जीव यथाख्यात नाम के शुद्ध चारित्र को धारण कर तथा केवल ज्ञान को पाकर नियम से सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है । तम्हा सम्मादिट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई । इय पाऊण गिहत्यो पुणं चायरउ असेण ।। तस्मात्सम्यदृष्टः पुण्यं मोक्षस्य काकणं भवति । इति ज्ञात्वा गृहस्थः पुण्यं चार्ययतु यत्नेन ।। ४२४ ।। अर्थ- इस ऊपर लिखे कथन से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टी का पुण्य मोक्ष कारण होता है यही समझ कर गृहस्थों को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये । आगे पुण्य के कारण बतलाते हैं । पुण्णस कारणं फुट पडम ता हाइ देवपूया य । कायम्बा भत्तोए सावयवग्गेण परमाय ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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