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________________ भाव-सग्रन वना की थी जिससे कि वह देव हुआ था, उसको भी जान लेता है। पुणरवि तमेव धम्म मणसा सद्दहइ सम्मदिट्ठी सो । वंदेइ जिणावराणं गंदिसर पहुइ सच्याई ।। पुनापि तमेव धर्म मनसा श्रद्दधाति सम्यग्दृष्टिः सः । वन्दते जिनवरान् नन्दीश्वरप्रतिसर्वान् ।! ४१९ !। अर्थ- तदनंतर बह सम्यग्दृटी देव फिर भी अपने मन में उसी धर्म का श्रद्धान करता है और पंच मेरु नंदीश्वरद्वीप आदि वो अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता है, उनमें विराजमान जिन प्रतिमाओं को वंदना करना और विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्र देव की भी वंदना करता है। इह बहुकालं सगे भोगं भुजंतु विविह रमणीयं । चइऊण आउस खए उष्यज्जइ मच्च लोयम्मि ।। इति बहुकालं स्वर्ग भोगं भुंजान: विविधरमणीयम् । च्यत्वा आयु: क्षये उत्पद्यते मर्त्यलोके ।। ४२० ।। अर्थ- इस प्रकार वह जीव स्वर्ग से जाकर वहत काल तक अनेक प्रकार के सुन्दर भोगों का अनुभव करता है । तदनंतर आयु पूर्ण होने पर वहां से च्युत होता है और इस मनुष्य लोक मे आकर जन्म लेता उत्तम कुले महंतो वहुजण णमणीय सपयापउरे । होऊण अहियरुबो बल जोवण रिद्धिसंपुष्णो ।। उत्तम कुले महति बहुजन नमनीय सम्पदाप्रचुरे । भूत्वा अधिकरूपः कल यौवनधिसम्पूर्णः ।। ४२१ ।। अर्ध- मनुष्य लोक में भी आकर वह बहुत महत्व शाली उत्तम कुल में उत्पन्न होता है तथा एसे कुल में उत्पन्न होता है जिसको बहुत म लोग मानते है नमस्कार करते है और जिसमे बहुतसी संपदा होती है । एसो, सिवाय उसका बहुत सुन्दर रुप होता है और वह बल ऋद्धि योनम आदि से परिपूर्ण होता है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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