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________________ भाव-संग्रह १८९ अर्थ- तदनंतर वह उत्पन्न हुआ देव अपने मन में चितवन करता कि क्या यह सब मेरा प्रभुत्व है अथवा यह सब क्या है ? अथवा ऐसा मालूम होता है कि विनय को धारण करने वाले ये सब देव गण है । कोहं इह कसावोकेण विहाणेण इयं गहं पत्तो । विओ को उगतबो केरिसियं संजमं विहियं ॥ कोई इह प्राप्तः । तति किमुतपः कीदृशं संयमं विहितम् ।। ४१६ ।। ? अर्थ - तदनंतर वह देव फिर चितवन करता है कि मं कौन हूं मैं इस भवन में क्यों आ गया और किस प्रकार आ गया । मैंने ऐसा कौनसा उग्र तपश्चरण धारण किया था अथवा कौनसा संयम पालन किया था जिससे कि मैं यहां आकर उत्पन्न हुआ हूँ । कि दाणं मे दिष्णो केरिसपत्ताण काय सु भत्तीए । जेणाहं कयपुरण्णो उप्पण्णो देवलोयम्मि || किं दानं मया वत्तंकीवृश पात्राणं क्या सुभक्त्या । येनाहं कृतपुण्य उत्पन्नो देवलोके ॥ ४१७ ।। अर्थ- वह देव फिर भी चितवन करता है कि क्या मैंने पहले भवमें दान दिया था और दान भी दिया था तो कैसे पात्रको दिया था और किस उत्तम भक्ति से दिया था। जिससे मैं उपार्जन कर इस देव लोक में आकर उत्पन्न हुआ हूं । पुण्य इम चिततो पसरइ ओहीणाणं तु भवसहावेण ! जाणइ सो आइयभव विहियं धम्मप्पहावं च | इति चिन्तयन् प्रसारयति अवधिज्ञानं तु भवस्वभावेन । जानाति स अतीत सवं विहितं धर्मप्रभावं च ॥ ४१८ ।। अर्थ - इस प्रकार चितवन करता हुआ वह देव अपने साथ उत्पन्न हुए भवप्रत्यय अवधि ज्ञान को फैलाता है और उस अवधि ज्ञान से वह अपने पहले भवको जान लेता है तथा पहले भवमे उसने जो धर्म प्रभा
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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