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उत्पन्नः कनकमये कायकान्तिभिः भासिते भवने । पश्यन् रत्नमयं प्रासादं कनक दीप्तिम् ॥ ४१२ ॥
भाव - संग्रह
अर्थ - इस प्रकार अपने पुण्य कर्म के उदय से वह जीव स्वर्ग ने अपने शरीर की कांति से सुशोभित होने वाले सुवर्णमय भवन में बहु देव उत्पन्न होता है। वहां पर वह सुवर्ण की कांति मे सुशोभित रत्नमय भवनों को देखता है ।
अणुकूलं परियणयं तरलियगयगं च अच्क्रराणिवह । मिच्छतो गमिय सिरं सिर कइय करंजली देवे ||
अनुकूलं परिजनकं तरलितनयनं च अप्सरोनिवहम् । पश्यन् नमित शीर्षान् शिरः कृतकरांजलीन् देवान् । ४१३ ।।
अर्थ- वहां पर वह अपने परिजनों को अपने अनुपुल देखता है, जिनके सुंदर नेत्र अत्यंत चंचल है, ऐसी अप्सराओं के समूह के देखता है तथा जिन के मस्तक नभीभूत हो रहे है और जिन्होंने अपने हाथ जोड कर अपने मस्तक पर रख लिये है ऐसे देवों को देखता है ।
णिसुणंतो यो तसए सुर वर सत्येणविरइए ललिए । तुं गुरु गाइयगीए वीणासद्देण सुद्दमुहए ||
निःश्रृण्वन् स्तोत्रशतान् सुर वर सार्थेन विरचितान् ललितान् । तुम्बुरु गीतगीतान् वीणा शङ्खेन श्रुति सुखदान ।। ४१४ ।।
अर्थ- इसके सिवाय यह उत्पन्न हुआ देव अनेक उत्तम देवों के द्वारा बनाये हुए सैकड़ों सुंदर स्तोत्रों को सुनता है तथा कानों को सुख देने बाले और तुंबर जाति के देवों के द्वारा बीणा के साथ गाये हुए गीतों को सुनता है ।
चितs किं एव मज्जन पत्तं इमं पि किं जायं । कि ओ लग्गइ एसो अमरगणो विण्य संपण्णो || चिन्तयति किमेतावत् समप्रभुत्वं इदमपि कि आतम् । किमुत लगति एषः सगणः विनयसम्पन्नः || ४१५ ।।