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भाव-संग्रह
हैं तथा मुनि और गणधर देवों के द्वारा बन्दनीय हैं एने थी महावीर स्वामी को नमस्कार कर मैं (आचार्य श्रीदेवसेन) भव्य जीवों को आत्म ज्ञान प्राप्त करनेके लिये इस भाव संबह ग्रंथत्री रचना करता हूँ :: ।।
जीवस्स हुंति भावा जीवा पुण दुबिह भेयसंजुत्ता। मुक्ता पुण संसारी, मुक्ता सिद्धा गिरवलेबा ॥ २ ॥ जीवस्य भवन्ति भावा, जोवाः पुद्विबिधभेदसंयुक्ताः । मुक्ता पुनः संसारिणो, मुक्ताः सिद्धा निरवलेपाः ॥ २ ॥
अर्थ- भाव सब जीवों के ही होते हैं अन्य अजीवादिक पदार्थोक भाव नहीं होते। तथा समस्त जीवों के दो भव है :-एक बात और दुसरे संसारी । जो जीव राग द्वेष मोह आदि समस्त विकास रहित है और समस्त कमांस राहत हैं एसे सिद्ध परमेष्ठी को मस्त जीव कहते
लोयग्मसिहरबासी केवलणाणेण मणिय तइलोया । असरोरा गइरहिया सुणिच्चला सुखभावढा ॥ ३ ॥ लोकानशिखरवासिनः केवलज्ञानेन ज्ञातत्रिलोकाः ।
अशरोरा गतिरहिताः सुनिश्चलाः शुद्धभावस्थाः ।। ३ ।।
अर्थ- वे सिद्ध परमेष्ठी बा मुक्त जीव लोक शिखरपर विराजमान हैं। अपने केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों को एक ही सयमम साक्षात देखते और जानते हैं। तथा वे सिद्ध परमष्टीशनर रहिन हैं, चारों गतियों के परिभ्रमणसे रहित है, चारो गतियो में से किसी गतिमें भी नहीं है. अत्यन्त निश्चल है और अपने आत्मा के शुद्ध भावों में सदा लीन रहते है ।। ३ ।।
जे संसारी जीवा चउगइपज्जायपरिणया णिज्च । ते परिणामे गिणबि सुहासुहे कम्भसंगहणे ।। ४ ।। ये संसारिणे । जीवाश्चतुर्गतिपर्यायपरिणता नित्यम् । ते परिणामान् गृहन्ति शुभाशुभान कर्म-संग्रहणे ।। ४ !!