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भाव-संग्रह
___अर्थ- जो जीव सदा काल चारों गतियों की पर्यायों में परिणत होते रहते हैं ऐसे जीत्रों को संसारी जीव कहते हैं । तथा ऐसे संसारी जीव कर्मोंका का संग्रह करने के लिए शुभ अशुभ दोनों प्रकारके कर्मों को ग्रहण करते रहते है।
भावार्थ- देवगति, मनुष्यगति, तिर्यश्चगति और नरकगति ये चार गतियां है । जो जीव इन चारों गतियों में परिभ्रमण करते रहने है वे जीव संसारी कहलाते हैं और ऐसे जीवों के शुभ परिणाम बा अशुभ परिणाम होते ही रहते है। उन्हीं शुभ या अशुभ परिणामों से समस्त कर्मों का संग्रह होता रहता है ।। ४ ।।
भावेण कुणइ पाचं पृगणं भाग तहत मुक्खं बा । इयमंतर पाऊणं जं सेयं तं समायरहं ॥ ५ ॥ भावेन करोति पापं पुण्यं भावेन तथा च मोक्षं वा । इत्यन्तरं ज्ञात्वा यच्छयस्त समाचरत ॥ ५ ॥
अर्थ- यह जीत्र अगले ही परिणामों से पाप उपार्जन करता है, अपने ही परिणाम से पुण्य उपार्जन करता है और अपने ही परिणामों में मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार अपने ही परिणामों में इतना भारी अन्तर समझकर हे भव्यजीब ! आत्मा के जो परिणाम आत्माका कल्याण करनेवाले हों उन्हीं परिणामों का तु आश्रय ले ।
भावार्थ- शुभ अशुभ वा शुद्ध भाव अपने आधीन है । यह जीत्र किसी जीव को मारने के भाव भी कर सकता है और उसके बचाने के भी भाव उत्पन्न कर सकता है। दोनों प्रकारके भाव उत्पन्न करना उसीके आधीन है। तथा आत्मा का कल्याण जीवों की रक्षा करने गे होता है और उनके मारने के परिणामों में पाप होता है । यही समझकर जीवों को अशुभ भावों का-पापरूप भावों का त्याग कर देना चाहिय
और शुभ भावों को धारण करना चाहिये । देखो-हिसा झूट चोरी कुशील और परिग्रह ये पांच पाप कहलाते है । इन्हीं पापोंके करने यह जीव नरक जाता है। परन्तु स्वयंभ रमण समुद्र में उत्पन्न होनेवाला