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________________ ऐसा साधारण जन कहते है। परंतु शुभ कार्य सुशील कैसे है । जो की । संसार रुप कारागार में प्रवेश करने के लिये कारण है। जई भणइ कोवि एवं गिह वावारेसु वह माणो वि । पुण्णे अम्हण काजं जं संसारे सुवाउई ।। ३८९ ।। ( भावसंग्रह । गृहवास मे रहते हुए भी और गृह व्यापार मे प्रवृत्त होते हुए भो। कोई कहता है की हमको पुण्य नही चाहिये क्योंकी पुण्य संसारमे गिराने वाला है। समाधान: मेहुणसण्णारुढो मारइ णवलक्खसुहुम जीवाई । इद जिणवरेहि भणिय बझंतर णिगंथ रुबेहिं ।। ३९० ॥ ( भावसंग्रह ) गहे चट्ट तस्स य वावरसयाइ सया कुर्णतस्स । आसवइ कम्ममसुहं अट्टर ठेउट्टे पवत्तस्स || ३९१ ॥ आम ण छह गेहं तामण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहतो हेड पुण्णस्स भाचया ॥ ३९३ ॥ उपरोक्त कुशंका का समाधान देते हुए आचार्य प्रवर देवसेन में नय एवं अवस्थाओं का अवलंबन लेकर स्याद्वाद पद्धति से उसका समर्थन एवं आगतिक उत्तर दिये है। बाह्य अभ्यतर ग्रंथों से रहित जिनेंद्र भगवान ने बताये है की एक बार मैथुन संज्ञासे सहित होकर मनुष्य जब भोग करता है तब लिंग और योनि के लिये संघर्षण से ९ लाख पंचेद्रिय मनुष्य जातिय लब्ध्य पर्यातक जीवों का घात करता है। पहले जीव मैथुन मोह कर्म के उदय से निर्मल ब्रह्मचर्य रुपी आत्म स्वरूप का घात करता है । उस समय जिस प्रकार सरसों से भरा हुआ पात्रा में संतप्त लोह शलाका डालने पर सरसों जल जाते है उसी प्रकार योनी गत १ लास्त्र' कब्ध्य पर्याप्त मनुष्य जीव भी जल जाते है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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