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________________ . गृह मे रहते हुए हजारो गृहव्यापारोंके सदा करते हुए अत्यन्त अमुम आई रौद्र परिणाम से अशुभ कर्म का आस्रव करता है जो की एकान से संसारका कारण होने से अत्यन्त हेय स्वरुप है। जब तक आई-रौद्र ध्यानोंका निवासस्वरुप गृहवास को त्याग नहीं करते है तब तक अत्यंत इन पापों का त्याग नहीं हो सकता है । यदि पाप का त्याग न होता है तो पुण्य कारणों को मत छोडो । पुण्यं कुरुत्व कृतपुण्यमनीहशोऽपि । ना पदवोऽभिभवति प्रभवेच्च भत्यं ।। संतापयन् जगदशेषमशीतरश्मिः । पोषु पश्य विदधाति विकासलक्ष्मीम् ॥ ३१ ॥ ( आत्मानुशा.) हे भव्य जीव ! तु पुण्य कर्म को कर, क्योंकि पुण्यवान प्राणी के ऊपर असाधारण भी उपद्रव कुछ प्रभाव नहीं डाल सकते है। इतना ही नहीं बल्कि वह उपद्रव भी उसके लिये संपत्तीका साधन बन जाता है। देखो, समस्त संसार को संतप्त करनेवाला भी सूर्य कमलों में विकासरुप लक्ष्मी को ही करता है । यथांगमध्यक्ष सुखे हि धर्मस्तथा परोक्ष पित्र मोक्ष सौख्ये । भोगाय भोगादी सुखाय धर्मो मित्रादि यत्नोऽपि निमित्तमात्रम्।१३ (धर्म रत्नाकर ) धर्म जैसा प्रत्यक्ष सुख का कारण है वैसे ही वह परोक्ष स्वरुप मोक्षसुख का भी कारण हैं । भोगोपभोगादि सुख के लिये धर्म ही कारण है । इस सुख के लिये मित्रादिकों का यल भी निमित्तमात्र है। रत्नत्रय समं धनं णमोकार समं मंत्र । आत्म तीर्थ समं तीर्थ न भूतो न भविष्यति ॥ ३ ॥ आत्मविद्या समं विद्या आत्महिता समं हिंसा | आत्ममित्र समं मित्र: न त्रिकाल लोके सन्ति ॥ ४ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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