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________________ पुण्य का लक्षण: पुनात्यारमानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । ( सर्वार्थ सिद्धि ) जो आरगा को पवित्र करता है जिसे अपना पवित्र होता है। वह पुण्य है। यस्तु शुद्धात्म भावना साधनार्य बहिरंग व्रत तपश्चरण । बानपूजाविकं करोति स परंपराया मोक्षं लभते इति भावार्था । । शुद्धात्माभावना को सिद्ध करने के लिये अथवा प्राप्त करने के | लिये बहिरंग ब्रत तपश्चरण, दान पूजादिक को जो करता है वह परंपरा से मोक्ष को प्राप्त करता है । ( समयसार १५ म. गा. जयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति ) पावागम धाराई अणाइरुठ्ठि याइं जीवम्मि । तत्प सुहासवदारं उग्धादेंतेका सवोसो || ५७ ।। (जय धवला ) | जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है तब तक जीव अनादि काल से। बंध ही करता है । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात ही सातिशय पु.य का । आश्रव होता है । जीव मे अनादि काल से पापाधव के द्वार स्थित है। उनके रहते हुए जो जीव शुभाश्रव द्वार का उद्घाटन करता है अर्थात ! पापाश्रव के कारणभूत मिथ्यात्व, विषय, कषाय, हिंसादि त्याग करके शुभाधवके कारण मत सम्यग्दर्शन, दया, दानादि में प्रवृत्त होता है । यह कसे सदोष हो सकता है ? अर्धात कभी भी नहीं हो सकता है । इसलिये प्राथमिक जीव को परंपरा मे मोक्ष के साधनभूत पुण्य को निदान रहित होकर सतत उपार्जन करना चाहिये । सालम्बम एवं निरालम्बन का ध्यान: शंफा:- अवलम्वन ध्यान से पुण्य होता है और अशुभ ध्यान से पाप होता है ये दोनों संसार के कारण है इसलिये दोनों विकल्पों से उपरम होकर शदात्मानुभूतिरुप निरालम्ब ध्यान क्यों नहीं करना । चाहिय ? समाधानः--
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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