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को मग पोई एवं अलि गिहा थानगिच्चलं झाण । । सुद्ध व णिरालम्ब ण मुणइ सो आयमो जइणो ।। ३८२ ।।
( भाव-संग्रह) कहियाणि विट्टिवाए पछुच्च गुण ठाव जाणि झाणाणि । तह्मा स देस विरओ मुक्खं धम्म ण ज्झाएई ।। ३८३ ।।
(भाव-संग्रह) । जो कोई कहता है कि गृहस्थी को निश्चल निरालम्ब, शुद्ध घ्यान रता है वह यतियों के आगम को नहीं जानता है दृष्टीवाद अंग में जो अणस्थान को लेकर ध्यान का वर्णन है उससे सिद्ध होता हे बि देश धरत' पंचम गुणस्थान श्रावकों को मुख्य ( उत्कृष्ट ) धर्म ध्यान नहीं
होता है।
___ गृहस्थों को उत्कृष्ट धर्म ध्यान नहीं होने का कारणः -
कि जे सो गिहवन्तो बहिरंतर गंथ परिमिओ णिच्च । बहु आरंभ पउत्तो कह शायद सुख मप्पाणं ।। ३८४ ।।
( भाव-संग्रह ) धरवायारा केई करणोया अस्थि तेण ते सव्वे । शायिस्स पुरओ चिट्ठति जिमी लियच्छिस्स ।। ३८५ ।।
{ भाव-सग्रह ) गृहस्थ सतत वाह्य धन धान्य, स्त्री-पुत्र परिग्रह एवं कामक्रोधादि । अन्तरंग परिग्रह से वेष्टित रहता है। कृषि व्यापारादि आरंभ स लीन रहता है इसी प्रकार बाह्य विषय मे लीन रहनेवाला गृहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान किस प्रकार कर सवाता है अर्थात नहीं कर सकता ।
न धर्मकल्पवक्ष समं तरं
न भावतीथं समं अस्ति तीर्थ । मनसमान नान्य चंचलास्ति
आत्मशक्ति समं न शक्तिमस्ति ।। ५ ।। विवेक समं न राजहंसः मधुर वचन समं नहि पिकः । गण ग्राहक समं मधुमक्षिः निन्दक समं नही गडपक्षिः । ६ ॥