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________________ २८ गृहस्थ व्यापार को करता हुआ उसका मम, इद्रियों, भाव उस हो तल्लीन रहता है जिस समय मे वह ध्यान करने के लिये आंख ब. कर बैठता है उसो. मानने सम्पूर्ण संसार-व्यापार मनरुपी चल चित्र परदे पर अंकित होते है । वह उस समय मे हाथ में तो माला फिरा. है और मन बाजार मे घंमाता है । ख पुष्पमथवा शंग स्वरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिगृहाश्रमे ।। १७ । (ज्ञानावः) आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते है । कदाचित् कि देश वा काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है, परंतु ग्रहस्थायी में ध्यान की सिद्धि होना किसी देश वा काल में संभव नहीं है ।। १७६ अप्रमत्त गुणस्थान में मुनि को निरालम्ब ध्यान होता है:ॐ पुण वि णिरालम्ब तं झाणं गयपमाय गुण ठाणे । चत्तगेहस्स जायद धरियं जिण लिंग यस्स ।। ३८१ ।। ( भाव-संग्रह) जो गृह त्याग करके निम्रन्थ जिनलिंग को धारण किया है इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थानवों मुनियों को निरालम्ब ध्यान हो सकता गृहस्थों को नहीं । अरसमरुवमगंधं अध्यतं चेवणागुणमसई । जाण अलिंगरगहणं जीव ममिद्दिष्ठ संठाणं ।। १२७ ।। ( पंचास्तिकाय ) । अलिंगग्गहणं यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्ष ज्ञानेन व्यवहारनगंगा घूमादग्निवदशुखात्मा ज्ञायते तथापि रागादि विकल्परहित स्वसंवेदनज्ञानसमुत्पन्न परमानंदरूपानुकूलत्व' सुस्थित वास्तव सुखामृतजलेन पूर्णकलशवत्सर्व प्रदेशेषुमरितावस्थानां परमयोगिनां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणां न भवतीत्यलिंगग्रहण: (श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः)।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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