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हे आत्मन । अनादि काले दुर्लभे वीतराग सर्वज्ञ प्रणीने रग-द्वेष मोह रहिते जीव परिणाम लक्षणे शुद्धोपयोगमपे निश्चय धर्म बहार धर्म च पुनः षडावश्यका.ि लक्षणे गृहस्थापेक्ष पा दान-पूजादि लक्ष वा शुभोपयोग स्वरुपे गतिं कुरु । इत्थंभूते धर्मे प्रतिकूलो यः तं मनुष्यं स्वगोजमपि त्यज तदनुकलं परगोगजमपि स्वीकृर्विति ।
अगाथं भावार्थः । विषय सुख निमितं यथानुरागं करोति । जीवम्तथा जिनधर्म करोति तहि संसारे न पततीति । विस यह कारणि सन्य जण जिम अणराउ करेइ । सिम जिणभासिए धम्मि जई ण उ संसारो पडेट ।।
अर्थ- हे आत्मन : अनादि काल से दुलं । जो वीतराग सर्वज्ञ कहा हुआ राग-द्वेष-मोह रहित शुद्धोपयोग रुप निश्चय धर्म और शुद्धोपयोग रुप व्यवहार धमं उनमें भी छहः आवश्यक हा यतीका धर्म, तथा दान गूजादि श्रावक का य: धर्म शुभाचार रुप दो प्रकार धर्म उसमें प्रिति कर । इस धर्म से मुिख जो अपने कुल का मनष्य उसे छोड और उस घम के सन्मुख जो पर कुटु' ब का भो मनुष्य ही उससे प्रिती कर । तात्पर्य यह है को, यह जीव जंसे विषय-सुखसे प्रिति करता है, वैसे जो जिनधर्म में करें तो संसार में नहीं भटके । एसा दूसरी जगह भी कहा है की विषय कारणों में यह जीव वारंबार प्रेम करता है, वैसे जो जिन धर्म में करें तो ससार में भ्रमण न करे ।। १३४ ॥
(परमात्म प्रकाश ) यरप्राम्जन्मनि संचितं तन मृता कर्मोशुभं वा शुभं । तदेव तदुदीरणादनुभवन दुःख सुखं वागतम् । कुर्याथः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तुभयोच्छितये । सर्वारम्भ परिग्रह ग्रहपरित्यागो स वन्धः स ताम् ।। २६२ ॥
(आत्मानुशासनम् ) अर्थ-प्राणिने पूर्व भव मे जिस पाप या पुण्य कर्म का सचय किया है वह देव कहा जाता है। उसकी उदीरणासे प्राप्त हुए दुःख अथवा सुख का अनुभव करता हुआ जो बुद्धिमान शुभ को ही करता है। पाप कार्यों को छोड़कर केवल पुण्य कार्यों को ही करता है-वह भी अभीष्ट