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१५५ है - प्रशसा के योग्य है किन्तु जो विवे को जोब उन दोनों { पुण्य-पाप)
काही नष्ट करने के लिये समस्त आरम् व परिग्रह पिशाच्च को छोड । कर शुद्धोपयोग में स्थित होता है वह तो सज्जन पुरुषों के लिये वंदनीय पूज्य है ।। २६२ ।।
शुभाशुभे पुण्य पापे सुख दुःखे च षट अयम । हितमाधमनष्ठेयं शेष श्रयमथाहितम् ॥ २३९ ।। तत्राप्या परित्याज्यं शेषो न स्तः स्वतः स्वयम् । शुम च शुद्ध त्यक्त्वान्ते प्रा-नोति परमं पदम् ।। २४० ।।
अर्थ- शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप, सुख और दुःख इस प्रकार यं छह हुए । इन छहों के तीन युगलों में से आदि के तीन शप, पुण्य
और सुख - आत्मा के लिये हितकारक होने से आचरण के योग्य है। तथा शेष तीन अशुभ-पाप और दुःख अहितकारक होने से छोड़ने के योग्य है।
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है की जिनपूजादिक शुभ क्रियाओं के द्वारा पुण्य कर्म का बन्ध होती है । इसके विपरीत हिंसा एवं असत्य माभापणादिरूप अशुभ क्रियाओंके द्वारा पाप का वन्ध होता है और उस पाप कर्म के उदय मे प्राप्त होनेपर उससे दुःख की प्राप्ति होती है ।
श्रावक की परिभाषा
श्रा - ( श्रद्धावान ) बसालना अति जिनेन्द्र शासने, 4- ( विवेकवान ) अनाधि पात्रघुनपस्य नीरसम् । क - ( क्रियावान ) कृतस्य पुग्पानि सुसाधु सेवनात् ।
अतोऽपि ते श्रावकमाहुरुत्तमाः ।। मुनि का परिवार
धर्यः यस्यैपिता क्षमाश्च जननि शास्तिश्चिरगहिणी । सत्र : सनुरयं दया च भगिनी भ्रातः मनः संयमः । शप्पा भूमीतल: विशोऽपि वसनं जानामृतं भोजनम् । येते यस्य कुटुम्बिनो वन सखे कस्मात भीतः योगीनः ।।