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इसलिये उक्त छह मे से शुभ और पुण्य सुख ये तीन उपादेव तथा अशुप पाप और दुःख ये तीन हेय है ।। २३९ ।।
पूर्व श्लोक में जिन तीन को शुभ-पुण्य और सुख को हितकारवा बतलाया है उनमे भी प्रथम का (अशभ का) परित्याग करना चाहिय ऐसा करने से शेष रहे पुण्य और सुख य दोनों स्वयं ही नहीं रहेंग, इस प्रकार शुभ को छोडकर और शुद्ध स्वभाव में स्थित होकर जीव अन्तम उत्कृष्ट पद ( मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।
विशेषार्थ-उपर जो इस श्लोक का अर्थ लिखा गया है वह संस्कृत टीकाकार श्री प्रभात्रन्द्राचार्य के अभिप्रायानुसार लिखा गया है। उपयुक्त इलोक के अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है - श्लोक २३९ में जो अशम पाप और दुःख ये तीन अहितकारक वतल ये गये है। उनमें भी प्रथम अशुभ का ही त्याग करना चाहिये कारणा यह कि ऐसा होनेपर शेष दोनों पाप और दुःख स्वयंभव नही रहते है क्योंकि इनका मूल कारण अशुभ ही है। इस प्रकार जब मूल कारण भूत वह अशम न रहेगा तब उसका साक्षात कार्यभूत पाप स्वयमेव नष्ट हो जावेगा, और अब पाप ही न रहेगा तो उसके कार्यभूत दुख:की भी कैसे सम्भावना की जा सकती है नहीं की जा सकती है । इस प्रकार उक्त अहितकारक तीन के नष्ट हो जानेपर शेष तीन जो शुभादि हितकारक रहते है वे भी वास्तव में f.तकारक नहीं है । ( देखिय आगे श्लोक २६२ )
उनको जो हितकारक व अनुष्ठय बतलाया गया है वह अतिशय अहितकारी अशुभादिक अपेक्षा ही बतलाया है | यथार्थ में तो वे भी परतंत्र के ही कारण है । भेद इतना ही है कि जहां अशुभादिक जीवको नारक एवं नियंच पर्याय में प्राप्त कराकर केवल दुःख का अनुभव कराते है वहां ये शुभातिक उसको मनुष्यों और देवों में उत्पन्न कराकर है । दुःखमिश्रित सुख का अनुभव कराते है । इसलिये यहां यह बतलाया है की उन अशुभादिक तीन का छोड़ देने के पश्चात शुद्धोपोग मे स्थित
कर उस शभ को भी छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार अन्त में उस शुभ के अविनाभावि पुण्य व सांसारिक सुख के भी नष्ट हो जाने पर जीव उस निर्वाध मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। जी की अनन्त काल