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________________ १५७ सक स्थिर रहने वाला है ।। २४० ।। ( आत्मानुशासनम् - २३९ ते २४० ) धरं व्रतैः पदं देवं नाक्तैर्वत नारकं । छायातपस्थयोभेवः प्रति लियतामहान् ।। ३ ।। अर्थ- ब्रतोंके द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है किन्तु अवतों के द्वारा नरक पद प्राप्त करना अच्छा नही है। जैसे- छाया और धप में बैठनेवाले मे अन्तर पाया जाता है वैसे ही व्रत और अवन के आवरण व पालन करने वाले में फर्क पाया जाता है ।। ३ ।। दोपदेश ब्रतादिक पालने में पाप कर्मों की निर्जरा होती है और पुण्य म का वन्ध होता है। परन्तु पुष्य वन्ध इहलोक व परलोक मुख का कारण है और परम्परा से मुक्ति का कारण है। . नमःशुभारतिय नहेवाग जायते । पारंपर्येण यो बन्धः स प्रबन्धाद्विधीयते ।। ५४ ।' अर्थ- भ भ व में शभान बन्धी होता है और यह शमानवन्धी परम्परा से वन्ध छेद के लिए कारण हो जाता है । इसलि शुभान यन्धा कर्म का प्रचूर रुप से करना चाहिये । ( धर्मरत्नाकर - दान फल अधिकार । विशेषार्थ- शरीर में कांटा घुसने के वाद उस कांटाको निकालने के लिये एक सुदृढ कांटा चाहिय, शरीस्थित काटाको जय तक नहीं निकालते तव त ' इस सदढ कांटा की परम आवश्यकता है शरीर स्थित कांटा निकालने के बाद उस सदृढ कांटा की आवश्यकता स्वयमेव नहीं रहती उसी प्रकार पाप कर्म देह स्थित कांटा के समान है। उस पाप कर्म को निकालने के लिो एक सुदृढ पुण्यरुप कांटा चाहिय, पाप रूपी कांटा निकालने के बाद पुण्यरूपी कांटा की आवश्यकता स्वयमेव हट जाती है। जैसे- मलीन वस्तु के संपर्क मे वस्त्र अब छ हो जाता है। उस अस्वच्छ को हटाने के लिये पानो, साबून, टिनोपाल चाहियं । पानी और साबन के प्रयोग से जव वस्त्र स्वच्छ हो जाता है तब उस वको
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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