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भाव-संग्रह
इसलिये वे मुनि किसी नगर गांव वा किसी पुर में रहते हैं और अपने तरश्चरण ये प्रभावा स्थविर कल्पी कहलाते हैं ।
उवयरण तं गहियं जेण ण भंगो हवे चरियस्य । गहियं पुत्थयदाणम् जाम जस्स सं तेग १९८ ।। उपकरणम् तद्गृहीतं येन न भंगो म यहि चर्यायाः । गृहीतं पुस्तफदान योग्य यस्य तत्तेन ।। १२८ ।।
अर्थ- वे मुनि अपने उपकरण भी ऐसे रखते है जिनसे किसी प्रकार वे चारित्र बा भग न होता हो । तथा वे मुनि अपनी २ योग्यता • अनसार किसी के द्वारा दिये हुए शास्त्र वा पुस्तक भी ग्रहण कर लेते है।
समुदाएण विहारो धम्मस्स पहावणं ससत्तीए । भवियाणं धम्मसवणं सिरसाणं य पालणं गणं ।। १२९ ॥ समुदामेन विहारो धर्मस्य प्रभावनं स्वनावस्या। भट्यातां धर्मभ्रषणं शिष्यानां च पालनं ग्रहणम् ॥ १२९ ।।
अर्थ - इस पंचम काल में ये स्थविर कल्पी मनि समदाय रूप से बिहार करते हैं, अपनी शक्ती के अनुसार धर्म की प्रभावना करते है। भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते है तथा शिष्यों को ग्रहण करते है और उनका पालन करते है ।
भावार्थ-- जो भब्य जिस दीक्षा के योग्य है उसको वैसी ही दीक्षा देते है, किसी को श्राधकों के योग्य ग्यारह स्थानों में से किसी भी स्थान की ( ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी प्रतिमा की ) दीक्षा देते है और किसी परम विरक्त भव्य जीव को मुनि की दीक्षा भी देते है | जिन को दीक्षा दी है उनसे यथायोग्य अपने अपने पद के अनुसार चारित्र का पालन कराते है. धर्म श्रवण कराते है, धर्म की प्रभावना करते है और सबको धर्म मे दृढ कराते रहते है ।
आगे ऐसे स्थविर कल्पी मुनियों की प्रशंसा करते है । संहणणं अइण्णिचं कालो सो दुस्समो मनो चवलो । सह वि हु धौरा पुरिसा महन्वयभरधरण-उच्छहिया ॥ १३० ||