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________________ १ भाव-संत्रह द्विविधतपसि उद्यमनं षडविधावश्यक: अनवरतम् । क्षितिशयनं शिरोलोचः जिनवर प्रतिरूप प्रतिग्रहणम् ।। १२६ ॥ अर्थ- वे स्थविर कल्पी मुनि पांचों महाव्रतों का धारण करना है खड़े होकर आहार लेते है. दिन में एक ही बार आहार लेते है. बार पात्र में ही आहार लेते है, तथा विना याचना कियं भक्ति पूर्वक जा कोई समय पर दे देता है वही भिक्षा भोजन कर लेते है। वे मुनि वाहा और आभ्यंतर दोनों प्रकार के तपश्चरण करने मे सदा उद्यमी रहते है। छह आबश्यकों प्रतिदन निरंतर पालन करते है, पश्वीपर शयन करते है मस्तक दाढ़ी मूछ के वालों का लांच करते हैं और जिनेंद्रदेव के समान ही माने जाते है। भावार्थ- स्थविर कल्पी मुनि की अट्ठाईस मूलगुणों का पालन . करते है, पांच महाव्रत, पांच समिति, छह आवश्यक, पंचेन्द्रियोंका दमन खड़े होकर आहार लेना, दिनमें एक ही बार करपात्र में आहार लेना. भूमिशयन, कैशलोच, दन्तधावन, स्नान, त्याग और समस्त वस्त्रों का वा समस्त परिग्रहों का त्याग कर मग्नरूप धारण करना इस प्रकार ये अट्टाईस मूल गुण हैं । स्थविर कल्पी मुनी इनका पूर्ण रूपसे पालन करते है तथा यथासंभव उत्तर गुणों का पालन करते है । वे स्थविर कलपी मुनि बारह अनुप्रंक्षाओं का चिन्तवन करते है, दश वर्मों का पालन करते हैं, परिषहों को सहन करते है, चरित्र का पालन करते है तथा तपश्चरण धारण करते है । इस प्रकार के स्थविर कल्पी मुनि पूर्णरूपसे जिनदेव समान ही मुनि होते हैं। आगे स्थविर कल्पियों के लिये और भी कहते है। संहणणस्स गुणेण य दुस्समकालस्स तय पहावेण । पुर णयर गामवासी विरे कप्पे ठिया आया ।। १२७ ।।। संहननस्य गुणेन च दु:खमकालस्य तपः प्रभावेन । पुरनगरग्रामवासिनः स्थविरे कल्पे स्थिता जाताः 11 १२७ ।। अर्थ- इस दुषम कालमे शरीर के संहनन बलबान नहीं होते,
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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