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यह पाप इतना कम है कि, पूजादीसे उत्पन्न पुण्य से उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है। वे अपना कार्य करने के लिये अशुभ कर्म फल देनेके लिये असमर्थ हो जाता है । जैस स्पर्शन इंद्रिय को तृप्त करनेवाले झंडे पानी से भरा समुद्र मे एक कण विष पड़ने से उस संपूर्ण समुद्र को वह विष कण दूषित नहीं कर पाता है।
प्रारम्भोऽप्येष पुण्याय वेधाधुद्वेशतः कृतः । सामग्ज्यंतर पातित्या जीवनाय वित्रं यथा ।। ३३९ ।।
(धर्मरत्नाकर ) देव, शास्त्र, गुम के उपदेश से किया गया महान आरंभ भी उसकी । सामग्री के अन्तर्गत होने से पुष्प के लिये होता है। जैसे विष इतर
सामुग्री से युक्त होने पर जीवन के लिये प्राण रक्षा का कारण मा होता
. भिन्न हेतुक एवायं भिन्नात्मा भिन्न गोचरः । भिन्नागु बंधस्तेन स्यात्पुण्यबंधनिबंधनम् ।। ३४० ।।
(धर्मरत्नाकर )
(५) ईशस्तवनम् सत्यं शिवम् सुन्दरम् चिदानन्दमंगलम
सर्व कर्म रहितम् सर्वगुणः मण्डितम् परिभ्रमः रहितम् लोक अग्ने संस्थितम् सदा स्थिरः निष्कम्पं व्यो दादः सहितम् सिद्धः शुद्धः ज्ञायकः बुद्धः विष्णुः महेशः
पुरुः हः शंकरः स्तुत्यः पूज्यः श्रीधरः एकानेक: ईश्वरः सक्षस्थूल: ध्यापकः आदिअन्त रहितम् आत्ममध्ये संस्थितम् वेह मनः रहितम् ज्ञान सुखं सहितम्
राग द्वेष रहितम् शम शान्ति शायितम् स्वच्छं सौम्यः गम्भीरम् आस्मभावा स्वरूपम् ।।