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दाता को प्राप्त होता है। दान शभात से नो -
सीदतो यतयो यदण्यनुचित किचिज्जलान्नादिक । स्वोकुर्वति विशिष्ट भक्ति विकला; कालादि दोषादहो । मालिन्यं रचयति यज्जिन मतस्यास्थानशयादिना । श्राबानामिदसि दूषण पदं शक्तानुपेक्षा कुलाय || || ४०१ ॥
( धर्मरत्नाकर ) ! रोगादिसे पीडित साधूजन विशिष्ट भक्ति से रत्रित होते हुए काल आदिके दोष से यद अपने पदके अयोग्य जल व अन्नादिक का स्वीकार करते है तथा अयोग्य वसति व शय्या आदिका ग्रहण करके जिनमत में मलिनता को उत्पन्न करते है तो यह दोष शक्ती होने पर भी उपेक्षा करनेवाले श्रावक पर आता है- इसे श्रावकों का दोष समझना चाहिए।
दान तीर्थ और धर्म तीर्थ की अपेक्षा तीर्थ दो प्रकारका है । दान तीर्थ के माध्यम से शरीर की रक्षा होती है और शरीर के माध्यम से धर्म पालन होता है । " शरीर माध्यम खलु धर्मशासनम् " धर्म पालन से इहलोक पर एवं अलोकिक सुख मिलता है। इसलिये श्रावकों को। धर्मतीर्थ प्रतन के लिये दान देना चाहिये । दान पूजावि क्या पाप बंध का कारण:
शंका:- पूजा दानादिक से आरंभ होने से हिंसा होती है। और उससे पाप बंध होता है। इसलिय दान पूजादिक नहीं करना चाहिए।
ननुदधि दुग्ध गंघमाल्यादिना भगवत: पूजाभिदाने पापमप्युपाय॑ते लेशतः सावद्य सद्भावात् इत्याशक्या ।
श्री जितेंद्र भगवान की दही-दूध-गंध-फूल मालादिसे पूजा करने । से पाप उत्पन्न होता है क्योंकि उस पूजादिसे (में) सावध है (पापात्मक आरंभादिक)
समाधान:- हे पूजातिशय पूज्य भगवान आपकी पूजा करने से , भव्य जीवों को सातिशय महत् पुण्य उपार्जन होता है । यद्यपि पूजादिक सामुग्री लाना, धोना, स्वच्छतादि करने से पाप उत्पन्न होता है तथापि