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________________ ९० दाता को प्राप्त होता है। दान शभात से नो - सीदतो यतयो यदण्यनुचित किचिज्जलान्नादिक । स्वोकुर्वति विशिष्ट भक्ति विकला; कालादि दोषादहो । मालिन्यं रचयति यज्जिन मतस्यास्थानशयादिना । श्राबानामिदसि दूषण पदं शक्तानुपेक्षा कुलाय || || ४०१ ॥ ( धर्मरत्नाकर ) ! रोगादिसे पीडित साधूजन विशिष्ट भक्ति से रत्रित होते हुए काल आदिके दोष से यद अपने पदके अयोग्य जल व अन्नादिक का स्वीकार करते है तथा अयोग्य वसति व शय्या आदिका ग्रहण करके जिनमत में मलिनता को उत्पन्न करते है तो यह दोष शक्ती होने पर भी उपेक्षा करनेवाले श्रावक पर आता है- इसे श्रावकों का दोष समझना चाहिए। दान तीर्थ और धर्म तीर्थ की अपेक्षा तीर्थ दो प्रकारका है । दान तीर्थ के माध्यम से शरीर की रक्षा होती है और शरीर के माध्यम से धर्म पालन होता है । " शरीर माध्यम खलु धर्मशासनम् " धर्म पालन से इहलोक पर एवं अलोकिक सुख मिलता है। इसलिये श्रावकों को। धर्मतीर्थ प्रतन के लिये दान देना चाहिये । दान पूजावि क्या पाप बंध का कारण: शंका:- पूजा दानादिक से आरंभ होने से हिंसा होती है। और उससे पाप बंध होता है। इसलिय दान पूजादिक नहीं करना चाहिए। ननुदधि दुग्ध गंघमाल्यादिना भगवत: पूजाभिदाने पापमप्युपाय॑ते लेशतः सावद्य सद्भावात् इत्याशक्या । श्री जितेंद्र भगवान की दही-दूध-गंध-फूल मालादिसे पूजा करने । से पाप उत्पन्न होता है क्योंकि उस पूजादिसे (में) सावध है (पापात्मक आरंभादिक) समाधान:- हे पूजातिशय पूज्य भगवान आपकी पूजा करने से , भव्य जीवों को सातिशय महत् पुण्य उपार्जन होता है । यद्यपि पूजादिक सामुग्री लाना, धोना, स्वच्छतादि करने से पाप उत्पन्न होता है तथापि
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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