SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोदति पश्यतां येषां शक्तानामपि साधवः । म धर्मो लौकिकोऽप्येषां दूरे लोकोत्तरा: स्थितः ।। ११० ।। (घमरत्नाकर ) दुःखको दूर करने में समर्थ होकर जो श्रावक साधूजन को कष्ट में देखकर भी उनके दुःख को दूर नही करते है। उनके लौकिक धर्म भी संभव नहीं है । फिर भला लोकोत्तर धर्म तो उनसे बहुत दूर है । एमा समझना चाहिये । ज्ञानपान ज्ञानवानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदाना त्सुखी नित्यं नियाधिभेर्षजा द्भवेत ।। जान दामम दानी विशिष्ट क्षायोपशमके माध्यम से मति श्रत अवधि मनःपर्याय ज्ञानी होता है । श्रुत केवली होता है। एवं शेष मे केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जाता है । अभय दान से इहलोक परलोक में निर्भय होता है । अन्न दान से इहलोक परलोक में सुखी होता है । औषध दान देने से शारिरीक - मानसिक - आध्यात्मिक रोग से रहित होकर परम स्वास्थ्य रुप अमृत पद को प्राप्त करता है । यस्यानपानः संतप्ताः साधवः साधयंत्यमी। स्वाध्यायादि क्रिया सा- तस्य पुण्यं तदुद्भवम् ।। (धर्मर लाकर ) जिस दाता के अन्न पानी से तृप्त हुए मनिजन आत्म हितकर सब स्वाध्यायादि क्रियाओं को करते है, इस र उत्पन्न हुआ पुण्य उम - बोधि दुर्लभ - जनम मरण मोह राग द्वेष अत्यन्त सुलभ भाई। संसार नाशक मोह मणाशक सुज्ञान सुलभ होई ।। - धर्म भावना - सबैच्छा पूरक सर्वार्थ साधक अनंत सुख के बाई। तीन लोक के सार चिप्तामणी आतम धरम होई ।। यह विधि द्वादश भावना बल से आत्मा परमाला होई । दुःख सुख में है समक्षा बल से कर्म कलंक न सई ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy