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________________ 1 ८८ जो अपने वन में अर्थात दैनिक आय में से चतुर्थ भाव दान देता है वह उत्कृष्ट दानी है जो षष्टांश दान देता है वह मध्यम दानी है । जो दशांश दान देता है वह जगन्य दानी है | धर्मे स्थैर्य स्यात्कस्यचिच्चं बलस्य | प्रौढं वात्सल्यं बृहणं सद्गुणानाम || दानेन श्लाघा शासनस्यातिनुर्थी । दातृणामित्थं वर्शनाचारशुद्धिः || ( धर्मरत्नाकर ) दान देने से किसी चंचल से होते हुए सा धार्मिक की उसमें स्थिरता होती है, धार्मिकों में प्रौढ (अतिशय ) वात्सल्य प्रगट होता है | धार्मिक में सद्गुणों की वृद्धी होती है तथा दान देने से जिन शासन की बडी प्रशंशा होती है। इस प्रकार दाता जन के दर्शनाचर की शुद्धि होती है। औदार्यवर्य पुष्य दक्षिण्यमन्यत् । समशुद्ध बोधः पातकात्स्याज्जुगुप्सा ।। आख्यातं मुख्यं सिद्धधर्मस्य | लिंग लोकभेयस्तद्दातुरेवोपपलम । १०८ ।। ( धर्मरत्नाकर ) श्रेष्ठ उदारता, पवित्र मृदुता या सरलता, निर्मलता पापसे ग्लानी तथा लोकप्रियता से अनादि सिद्ध धर्म के चिन्ह कहे गये है और ये सब गुणदाता को ही प्राप्त होता है । तोर्थोन्नतिः परिणतिश्च परोपकारे । ज्ञानादि निर्मल गुणावलिकाभिवृद्धिः । वित्तादि वस्तुविषये च विनाश बुद्धिः । संवादिता भवति दानवतात्मशुद्धिः ।। १०९, ( ध र दान देने से तिर्थकी उन्नती, दाताकी परोपकार परिणती ( प्रवृत्ति ) ज्ञानाहि निर्मल गुण समूह की वृद्धी धन आदि वस्तुओं मे नश्वरता का विचार और दाता की आत्मशुद्धी भी हैं। ।। १०९ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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