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द्वारा प्रतिपादित ( जिन प्रतिमा - जिन मंदीर जिन गुरु सप्त क्षेत्र में बोता है उसको त्रिभुवनरूपी राज्य फल मिलता है एवं पंचकल्याणक धारी तिर्थकर पद को प्राप्त करता है।
जो मुनिजुत्तवसेसं मुंभइ सो भुजाए जिणुवदिद्ध । संसार सार सोपस्खं कमसो णिन्याण वर सोक्खं ।।११।। (रयण.)
जो भव्य मुनिश्वरों के आहार दान के पश्चात अवशेष अन्न को भक्तिपूर्वक खाता है वह संसार के सारभूत उत्तम सुख को प्राप्त करता है । और क्रमशा निर्वाण सुख भी प्राप्त करता है।
सर्वोवांति सौख्यमेव तनुचत्तन्मोक्ष एवं स्फूट | वृष्टयादित्रय एवं सिद्धयति स तमिर्गय एवं स्थितम् ।।
( पदमनंदी पंच वि. - - - - -) सवत्तिर्मपुरुषोऽस्य वृत्ति रशनासदीयते श्रावकैःकाले । क्लिडर तरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥ ८॥
सब प्राणी सुख की इच्छा करते है, वह सुख स्पष्टतया मोक्षमे ही है । वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि स्वरुप रत्नत्रय के होनेपर ही सिद्ध होता है । बह रत्नत्रय साधू के होता है । उक्त साधुकी स्थिति भोजन के निमित्त से होती है । और वह भोजन श्रावकों के द्वारा दिया जाता है । इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त काल में भी मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति प्रायः उन श्रावको के निमित्तसे ही हो रही है । रानांश:
तूर्यांशो वा षडयो या वशांशो वा निजार्थतः । वोयते यातु सा शक्तिवर्या मध्या कनीयस ।।
(धर्मरत्नाकर अ० १२ )
- निहुरा - नाव से नाधिक निकाले पानी है यथा हल्का हुये है नाव । तथा जीव भी निर्जरे फर्म को आत्मा का विशेष भाव ।।
- लोक - अनादि अनंत लोको शाश्वसिक याके कर्ता न कोय । अज्ञान मोह वश जीव भर में करता घरता होई ।।