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भाव-मग्रह
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सससुक्कलि कण्णाविय कण्णद्यावरण वीह कण्णा य । लांगूलधरा अपरे अपरे मणुया अमासा य ।। ५३९ ।। शश शाकुलिकर्णा अविच कर्णप्रथरर्णा दीर्घ कर्णाश्च ।
लांगूलधरा अपरे अपरे मनुप्या अभाषकाश्च ।। ५३९ ।।
अर्थ- उन मनुष्यों में से कितने ही मनुष्य खरगोश कसे कान वाले होते है, कितने ही पूरी के से कान वाले होते है कितने ही मनुष्यों के चौडे कान होते है और कितने ही मनुष्यों के लम्बे कान होते है । इनके. शिवाय कितने ही मनुष्यों के पूंछ होती है और कितने मनुष्य किमी गी प्रकार की भाषा नहीं बोलते।
ए ए णरा पसिद्धा तिरिया वि हबंति कु भोय भूमोसु । मणुसुतर वाहिरेसु अ असंख दीवेसु ते होंति । एने नराः प्रसिद्धाः नियंचोपि भवन्ति कुभोग भूमिषु । मानषोत्तर बाह्येषुच असख्य द्वीपेषु ते भवन्ति ।। ५४० ।।
अर्थ- इन सव कुभोग भूमियों में मनुष्य ही होते है, तथा इनके सिवाय मानुषोत्तर पर्वत के बाहर असंख्यात द्वीपों में होने वाली कुभोग भूमियों लियंत्र भी होते है ।
सब्वे मंद कसाया सध्ने णिस्सेस बाहि परिहोणा। मारऊण वितरा बिहु जोइसु भवणेसु जायंति ।। सर्वे मन्दकषायाः सर्वे निःशेषशाधिपरिहीनाः । मृत्वा व्यन्तरेष्वपि हि ज्योति भवनेषु जायन्ते ।। ५४१ ।।
अर्थ- ये सब मनुष्य और तिर्यन्च मंद कषायी होते है और सबके संपूर्ण व्याधियों से रहित होते है। वे सब मरकर कितने व्यंतर देवों में उत्पन्न होते है, और कितने ही ज्योतिषी और भवन वासी देवों में उत्पन्न होते है।
तस्थ चुया पुण संता तिरियणरा पुण हवंति ते सम्थे । काऊण तत्थ पावं पुणोवि णिरयापहा होति ।। ततस्थुताः पुनःसन्त: तिर्यग्नराः पुनः भवंति ते सरें। कृत्वा तत्र पापं पुनरपि नरकपथा भवन्ति ।। ५४२ ।।