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________________ १०० पुनः उत्तम मनुष्य को प्राप्त होता है। वहां पर उत्तम भोग को भोगकर पूर्व संस्कार के कारण सातिशय पुण्य के प्रभाव से दीक्षा लेकर मनित्रत को धारण कर शक्ल ध्यान को प्राप्त करके कर्म नष्ट करके सिद्धान को प्राप्त करता है इसी प्रकार गृहस्थ के व्रत मे सातिशय पुण्य प्राप्त होता है, पापों का संवर निर्जरा होती हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है। ७ वा गुणस्थान-सफल सयमी-मोक्ष मार्ग के उत्कृष्ट पात्रो: जब भव्य सम्यग्दृष्टो देश संयम मपी पुरुषार्थ से कर्म शक्ति को ! हास करके आत्मशक्ति की वृद्धि करता है तब उसकी मोक्ष मार्ग की यात्रा तीन हो जाती है । तब वह अवशष बाह्य परिग्रहों को पूर्ण रुपले त्याग सहित अन्तरंग परिग्रह को त्याग कर वह जिनेन्द्र भगवान के यथा जात रुप को धारण करता है । वह तीर्थकर का लघुनंदन बन जाता है। वत्तावत्तपमादे जो णिवसर पमत्त सजदो होइ । सयल गुणसौल कॉलओ महत्वई चित्तलायरणो ।। ६०१ ।। ( भव-संग्रह ) जो महानतवारी मुनि व्यक्त अव्य सप्रमाद से सहित है, सर्व गण शीले मण्डित है. चित्रलाचरण मे सहित है ( प्रमाद के कारण आचरण में मिधरूप परिणाम ) उनके प्रमाबरत ६ ठा गुणस्थान होना है। मुनि का स्वरूप: णाह होमि परेसि ण मे परे पास्थि मजमिह किचि । इदि णिच्छिचा जिणिदो जादो जध जादस्व घरो । २०४।। ( प्रवचनसार ) मैं दूसरों का नहीं हूँ पर मेरे नहीं है इसलोक में मेरा कुछ भी नहीं है एसा निश्चय करके जितेन्द्रिय होता हुआ यथा जात रुप धारी निम्रन्थ मुनि बन जाता है । शंका:- आत्म, द्रव्य, त्याग, आदान, व्रत, अन्नन्न, संकल्प विकल्प से रहित है । तब इसी प्रकार बाह्य द्रव्यों अर्थात् संसार स्त्री कुटुंब का त्याग एवं व्रतों आदि का पालन रुपी संकल्प विकल्प क्या करना चाहिये?
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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