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________________ २७८ तत्रैव हि द्वौ भावी ध्यानं पुनः त्रिविधभेद लच्छुक्लम् । steeurये शेषे समलत्वं भवति चित्तस्य । ६५३ ।। माव-संग्रह अर्थ - इस गुण स्थान में भी औपशमिक और क्षायिक दो हो भाव होते हैं । उपशम श्रेणी वाले के अपशमिक भाव होते है और क्षपक श्रेणी वाले क्षायिक भाव होते है। इसी प्रकार इस गुण स्थान में पहले कहा हुआ पृथक्त्व सवितर्क सवीचार नाम का दोनों भेद वाला प्रथम शुक्ल ध्यान ही होता है इस गुण स्थान में केवल सूक्ष्म लोभ कप या होता है इसलिये उनका चित्त कुछ थोडा सा समल वा मल सहिन ( अत्यन्त सूक्ष्म अशुद्धता सहित ) होता है । जह कोसुं य वत्थं होइ सया सुहुमराग सहुत्तं । एवं सुहम कसाओ सुहम सराबोति निद्दिट्ठो ॥ यथा कौसुम्बं वस्त्रं भवति सदा सूक्ष्म राग संयुक्तम् । एवं सूक्ष्म कषाय: सूक्ष्म सराग इति निदिष्ट ।। ६५४ ।। अर्थ- जिस प्रकार कमल मे रंगे हुए वस्त्रों में (कसुभा के फुलों के रंग में रंगे हुए वस्त्र में ) लाली अत्यन्त सुक्ष्म होती है इसी प्रकार इस दर्शवे गुणस्थान में लोभ रूपों कषाय अत्यन्त सूक्ष्म होता है इललिये इस गुण स्थान का नाम सूक्ष्म सांपराय कहा गया है। इस प्रकार सूक्ष्म सांपराय नाम के दशवे गुण स्थान स्वरुप कहा । अब आगे उपशांत कषाय नाम के ग्यारहवे गुण स्थान का स्वरूप कहते है । जो जवसमइ कसाए मोहासंबंधि पडियूहं च । जवसामओति भणिओ खओ णाम न सो लहद्द || यः उपश्याम्यति कषायान् मोहस्य सम्बन्धि प्रकृति व्यूह च । उपशामक इति भणितः क्षपकं नाम न लभते ।। ६५५ ।। अर्थ - जो मुनि मोह की समस्त प्रकृतियों का उपशम कर देते हैं बे उपशांत कषाय नाम के ग्यारहवें गुणस्थान वर्ती मुनि कहलाते है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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