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भाव-सग्रह
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ग्यारहवें गण स्थान वर्ती मुनि क्षपक कभी भी नहीं कहला सकते । क्योंकि जो उपशम श्रेणी में चढते है और कर्मों का उपशम करते करते ग्यारहवें गुण स्थान तक आ जाते है । वे कर्मों का क्षय नहीं करते। इसलिये वे क्षपक नही कहला सकते । क्षक वे ही कहलाते है जो क्षपक श्रेणी चढकर कर्मों का क्षय करते जाते है ।
आगे और भी कहते है । सुक्कज्माणं पढ़म मावो पुण तस्थ उयसमो भणिओ। मोहोदयाउ कोई पडिऊग य जाइ मिच्छत्तं ।। शुक्ल ध्यानं प्रथम भावः पुनः तत्रोपशः भणितः । मोहोक्याकश्चित् प्रतिषस्य च याति मिथ्यात्वम् ।१६५६।।
अर्थ- इस गुण स्थान में पहला पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम का शुक्ल ध्यान होता है तथा इस गुण स्थान में औपशमिक भाव ही होते है। इस गण स्थान के अन्त में मोहनीय कर्म की जो समस्त प्रकृतियां उपशांत हो गई थीं वे सब प्रकृतियां उदय में आ जाती है और फिर वे मनि इस ग्यारहवें गुण स्थान से गिर जाले है। ग्याहरवें मुण स्थान से गिरने वाले कितने ही मुनि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाने से मिथ्यात्व गण स्थान में भी आ जाते है।
कोई पमायरहियं ठाणं अरसिज्ज पुर्णाव आहइ। चरम सरीरो जीवो खवयसेहीं च रय हरणे ।। कश्चित् प्रमाव रहितं स्थान माश्रित्य पुनरप्पारोहयतिः ।
चरम शरीरो जीवः क्षपक-णि च रजोहरणे ।।६५७!।
अर्थ- ग्याहरवे गुण स्थान से गिर कर कितने ही मुनि सावें गुण स्थान मे अप्रमत्त गुण स्थान मे आ जाते है और सातवें गुण स्थान मे आकर फिर भी अंगी चहते है । यदि उन मुनियों में कोई मुनि चरम शरीरी हुए तो वे मुनि क्षक श्रेणी मे चढ़ जाते है तथा क्षपक धेणी मे चढ़ कर वे ज्ञानाबरण दर्शना वरण कर्मों का नाश करने के लिये उद्यम करते है।