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________________ १६० विशेषार्थः- चतुर्थ गुणस्थानमे आगे उत्तरोत्तर पापकर्मका संवर और निर्जरा वृद्धि हो जाती है । और पुण्य कर्मका आश्रव और बंध उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता है, इस प्रकार क्रिया सकषाय गुणस्थान नक (१० वे मुणस्थान तक) चलती रहती है। क्षीणकषाय आदि गणस्थान में पुण्यात्रव होता है फिर भी वन्ध नहीं होता है, परन्तु पुष्प कर्म तेरावे गुस्थान तक नष्ट नहीं होती बढता की रहता है। परन्तु परम योगी शैलेश अवस्था प्राप्त अयोगी केवली गुणस्थान में चरम समय और द्वोचरम समय में संपूर्ण पुण्य और पाप कर्मोका समूल विनाश होजाता हैं । पाप प्रकृती यथा योग्य द्वितियादि गुणस्थान मे संबर एव निजरा होती है । परन्तु विशिष्ट पृण्य कर्मोका संवर निर्जरा १४ बे गणस्थानके नीचे नीचे होती नहीं है । परंतु उत्तरोत्तर गुणस्थानमें अनुभाग शक्ति बढती जाती है। परन्तु परिनिर्वाण के पूर्ववर्ती सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाती है। किनके पुण्य हेय है ? पुणेण होड विहवो बिहवेण मओ भएण नइ-मोहो । मह मोहेगा य पाय ता पुण्णं अम्ह मा होउ ।। ६० ।।। अर्थ- पुण्यमे घरमे धन होता है और धनसे अभिमान, मानने बद्धिभ्रम होता है: बुद्धिके भ्रम होनेसे { अविबेकमे ) पाप होता है ! इसलिये ऐसा पुष्ट हमारे न होवे टोका- 'पुणेण इत्यादि । पुणगेण होइ बिहवो पुण्णण विभवो विभूतिर्भवति, बिहवेण मओ विभत्रेण भदोऽईकारो ग! भवति. मएण म इमोहो विजानाद्यष्टविधमदेव मलिमोहो मतिभ्रंशो विवेकमवन्द भवति । महमोहेण य पाच मति मूढत्वेन पापं भवति ता पुण्यं अह मा तस्मादित्थंभूतं पुण्यं अस्माकमाभूदिति । तया च इ. पूर्वोक्तं भेदाभेदर नयाराधनाहिसेन दृष्ट-, श्रुतानुभूत भोगाकांक्षारुप लिदानवन्ध परिणामसहितेन जीवेन यदुपाजित पूर्व भवे तदेव मदमहंकार जनर्यात बद्धिविनाशं च करोति । न च पुन सम्यक्त्वादि गुणसहित भरत-सगर राम पांडव आदि पुण्य बन्धवत् । यदि पुनः सर्वेषां मदम्जनयति तहि ने कथं पुण्य माजना सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्ष गस': ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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