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________________ वार्थ ।। तथा चोक्तं चिरन्तनानां निरहंकारत्वम्"स यं वाचि मतो अतं हृदि क्या शौर्य मुजे विक्रम । लक्ष्मीनिमनूनथिनिधये मागें गतिनिवृतेः ।। प्राग्जनीइ सेऽपि निरहंकाराः श्रुतेगाँवराश्चित्रं संप्रति लेगतोऽपि न गुणास्तेषां तथा सुद्धताः ।।६।। भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित देखे सुने, अनुभवे भोगोंको यांछारूप निदान बन्धके परिणामोंसे सहित जो मिथ्यादृष्टी संसारी अज्ञान जीव है। उसमें पहले उपार्जन किये भोगोंकी बांछ.रुप पुण्य उसके फल से प्राप्त हुयी घर में स. पदा होने से अभिमान, (घमड़ होता है, अभि मानसे बुद्धिभ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्ट कर पार कमाता है और पापसे भभव में अनंत दुःख पाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टीयोंका पुण्य पापकाही कारण है। जो सम्यक्त्वादिगुणसहित भरत, राम, पाण्डवा के विवेकी जीव है उनको पुण्य बन्ध अभिमान उत्पन्न नही करता परम्पराये मोक्ष का कारण है । जैसे-अज्ञानीयों के पुण्यका फल विभूति गर्व कारण है, वैसे सम्यग्दृष्टीयोंके नहीं है । वे सम्यग्दा टी पूण्य के पात्र हये चक्रवर्ती आदिकी विभूति पाकर मद अहंकार आदि विकल्पोंको छोड़कर मोक्षको गये अर्थात सम्यग्दृष्टी जीव चक्रवर्ती बल भद्र पद में भी निरहंकार रहै । ऐसा ही कथन आत्मानुशासन प्रयमे श्री गण भद्राचार्य ने किया है कि पहले समयमें ऐसे सत्तुरूष हो गये है की जिनके वचन में सत्य बुद्धिम शात्र मनमें दया पराक्रम रूप भुजाबामें शूरवीरता याचकों में पूर्ण लक्ष्मीका दान और मोक्ष माग गमन है। वे निराभिमानी हुयं जिनके किसी गृण का अहंकार नहीं हुआ। उनके नाम शास्त्रों में प्रसिद्ध है । परन्तु अव वडा अचम्ब है की इस पंचम कालमें लेश मात्र भी गुण नहीं है तो भी शुद्धतापनर है, यानी गुण तो रंच मात्र भी नहीं और आमिमान में बुद्धि रहती है। (परमात्म प्रकाश-) पाप भी उपादेय है। अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थ धर्माभिमुखोभरती तत्पापमपि समीचीन मिति दर्शयति
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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