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________________ सप के माध्यम से भविष्य में उदय आने योग्य कर्म को गला देता है । उसी प्रकार मुनीश्वर को नवीन आश्रत्र या बन्ध नहीं होता है । उस परम वीतरागी मुनिस्वरों का राप एवं पुण्य स्वयमेव निष्फल होकर | खिर जाते है और उनको नवीन कस्स्रिव बन्ध नहीं होता है । उन्हीको परम निर्वाण को प्राप्ति होती है। ( आत्मानुशासनम् ) असुहाण पयहीण अणंत भागा रस्सस खंडाणि । सुह पयडीणं णियमा णाल्थि ति रसस्स खण्डाणि ।। ८० ।। अर्थ- अप्रशस्त अर्थात पाप प्रकृतियों के अनंत वहुभाग का घात नियम से नहीं होता है । बयोंकि विशद्धि के कारण प्रशस्त्र प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है परन्तु घात नही होता है । तथा विशुद्धि के कारण पाप प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर हास को प्राप्त होता है परन्तु वृद्धिको प्राप्त नही होता है । पदमापुध्वरसावो चरिमे समये पअच्छइवराणं ।। रससतमणंत गुण अगंतगुण होणयं होदि ।। ८२ ।। अर्थ- अपूर्वकरण में प्रतिसमय अणंतगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियोंका अनंतगुणा वढता अनुभाग सब्ब है । तथा विशुदि के कारण अनुभाग काण्डक घात के महत्वसे अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अनन्तवाँ भाग सत्व घरम समयमे होता है । इस कारण अर्य करण के प्रथम समय संबंधी प्रशस्त प्रकृतियोंका जो अनुभाग सत्त्व है उससे अश्वकरण के चरम समय में प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग तो अनंतगुणा बढ़ता हुआ सत्व में है । तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग सत्व अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितना है उससे अनंतगुणाहीन अपूर्वकरण के चरम समय ___ इससे सिद्ध होता है । आत्म विशुद्धि से पु'य कर्म चौदहवाँ गुणस्थाव के नीचे नीचे नाश नहीं होते है परतु वृद्धि को प्राप्त होते है । तथा पाप कर्म अत्म विशुद्धि से नाश होता है किंतु वृद्धि को प्राप्त नहीं होते है। (लब्धिसार)
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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