SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण है। सासादन, मिश्न, असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीन स्थान में मिथ्याव को छोड़ अन्य अविरति आदि चारों प्रत्यय बंध के कारण है। जब तक मिथ्यात्व गणस्थान में मिथ्यात्व प्रकृति उदय में रहती है तव तक मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतितों का बंध होता है उसके आगे बंद च्छित्ति हो जाती है। मिच्छत्त हुंड सदाऽसंपत्तेयक्ल थावरावावं । सुहमतिय विलिदिय णिरंयबु गिरयाउ मिन्छे ।।१५।। (कर्मका) मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासपाठिका संहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलय, नरकति. नरकगत्यानुपूर्वी और नरकामु इन १६ प्रकृतियों की बंध ट्युच्छित्त मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में होती है । सामण्ण पच्चया खल चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायं जोगा य बोद्धव्वा ॥१०॥ ( समयसार ) सामान्य से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बंध के का है अर्थात् जिस समय में मिथ्यात्व कर्म का उदय होता है उस समय उदयगत मिथ्यात्व कर्म के कारण जो भाव होता है उसके माध्यम से पुन: नवी कर्म बंध होता है इसी प्रकान अविरति आदि से जानना चाहिये । यहाँ पर प्रमाद को आचार्यश्री ने नहीं गिनाया है तो क्या प्रमाद बंध के लिये कारण नहीं है, अवश्य कारण है किंतु प्रमाद को कषाय में अन्तर्भूत कर दिया है क्योंकि कषाय के कारण प्रमाद होता है। द्रव्य संग्रह में “जोगा पडि प्रदेशा टिदिठ अनुभाग कसायदो होदि" इस में कसाय को ही स्थिति और अनुभाग का कारण बताया जे जासेण रागद्दोसो मोहो आस्थि णिच्चयेण । से फासेण अधम्मो होदि हुणिच्चयेण ।। आदा धम्मो दुविहं सायार अणायार भयेण । सायार साधयं पुणो अणायारं साजन ।। १० ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy