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भाव संग्रह
वं भणि छिपिणि डोंवि नरिय बडि रज्जइ चम्मारि कबले समइ समागमेह तह भुत्ति य परणारि ।। १८५ ।। दुहिता मातृभगिनी अन्या अपि पुत्राथिनी आयाति च व्यासषधन प्रकटनीयं विप्रेण । यथारभिता कामातुरेग वेवगर्वणोत्पन्नदर्पण । ब्राम्हणी डोम्बी नटी विरुटो रजको चर्मकारी कपिले समये समागच्छन्ती तथा भुक्ता च परनारी ।। १८५ ।।
अर्थ- यदि पुत्र की इच्छा करनेवाली पुत्री माता बहिन आदि कोई भी आवे तो ब्राम्हगों को न्यास के वचन ही प्रगट कर दिखाने त्राहिये । जिस प्रकार वेद ज्ञान से उत्पन्न हुए अभिमान से मदोन्मत्त कामसक्त ब्राम्हण ने आगी, भरि जिी मोहित वणति जरिन आदि मव के साथ रमण किया था उसी प्रकार सांख्य मत मे अपने पास आई हुई पररात्री का सेवन करना चाहिये । ऐसा सांख्य मत है । हम सिबाय सांख्य मत में यहां तक लिखा है किस्वयमेवागत नारों यो न कामयते नरः ।।
ब्रम्हाहत्या भवेत्तस्य पूर्वग्रम्हाऽवबोदिवम् ।। अर्थात् - जो स्त्री अपने पाम स्वयमेव आत्रे और वह मनाय जाके साथ संभोग न करे तो उस मनुष्य को ब्रम्ह हत्या का महान महादोष लगता है। ऐसा पूर्व ब्रम्हा ने कहा है।
आगे सांख्य का यह मत महा पाप और महा दुःत्रो का कारण है एना दिखलाते है।
अण्णाण धम्मलग्गो जीवो दुक्खाण पूरिओ होइ। चउगइ गईहिणियडई संसारे भमिहि हिडतो ॥ १८६ ॥ अज्ञानधर्मलग्नो जीवो दुःखः पूरितो भवति । चतुर्गती गतिभिः निपतति संसारे भ्रमति हिण्डन् ।। १८६ ।।
अर्थ- इस प्रकार सांस्य मत को माननेवाले अज्ञान धर्म में लगे हुये जीव अनेक महा दुःखो से पूरित हो जाते है । तथा चारों गतियों में