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भाव-मद्रह
सो कह सयणो भण्णाइ बिग्घं जो कुणइ धम्मदाणस्स । दाऊण पाव बुद्धी हाडइ दुक्खायरे णरए ।। स कथं स्वजनो भण्यते विघ्न यः करोति धर्मवामनाय । दत्वा पाप गाजयति गुलाकरे नर ।। ५ ।।
अर्थ- विचार करने की बात है कि स्वजन होकर भी जो धर्म कार्यों में दिये हुए दान का निषेध करता है और पाप रूम बुद्धि का उपदेश देकर अनेक दुःखों से भरे हुए नरक में डालना चाहता है वह अपना स्वजन कैसे हो सकता है । भावार्थ- उसे तो पूर्ण शत्रू समझना चाहिये।
सो सयणो सो बंधू सो मित्तो जो सहिज्जओ धम्मे । जो धम्म बिग्धग्रारो सो सन स्थि संदेहो ।। स स्वजन: स बंधुः स मित्र यः सहायकः धर्मे । यो धर्म विघ्नकारी स शत्रुः नास्ति सन्देहः ।। ५६५ ॥
अर्थ- इस संसार में जो पुरुष अपने धर्म का पालन करने मे सहायक होता है उसीको स्वजन समझना चाहिय उसीका वन्ध समझना चाहिये और उसीको मित्र समझना चाहिये । जो पुरुष धर्मकार्यों में विश्न करता है धर्म पालन करने मे विघ्न करता है वह पुरुष शत्रु ही है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है।
ने प्रणा लोयत तेहि णिरुद्धाई कुगई गमणाणि । वित्त पत्तं चित्तं पाविवि जहि दिण्ण दाण.ई ।। ते धन्या लोक त्रये तैः निरुद्धानि कुगति गमनानि । वित्त पात्र चित्त प्राप्यापिः दत्तदानानि ।। ५६६ ।।
अर्थ- जिन पुरुषों को यथेष्ट धन वा प्राप्ति हुई है चित्तमे दान दान देने की बुद्धि प्राप्त हुई है और सुपात्रों का लाभ भी प्राप्त हुआ है । इन तीनो संयोगो को पाकर जो सुपात्रों को दान देते रहते है वे पुरूष तीनो लोकों में धन्य समझे जाते है और एसे ही नरकादिक दुर्ग - तियों को सदा के लिये रोक देते है ।
मुणिभोयणेण दव्वं जस्स गयं जुटवणं च तवयरणे । सण्णासेण य जीवं जस्स गयं कि गयं तस्स 11