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________________ २४६ माव-सह मुनि भोजनेन द्रव्यं यस्य गतं यौवन च तपश्चरण । सन्यासेन तु जीवितं यस्य गतं किं गतं तस्य ।। ५६७ ।। अर्थ- जिस महापुरूष का धन मुनियों के भोजन कराने मे चला गया जिसकी युवावस्था तपश्चरण करने में चली गई और जिसका जीव' सन्यास ( समाधिमरण ) धारण कर चला गया उसका क्या गया ? अर्थात उसका तो कुछ भी नहीं गया । भावार्थ- जिसने अपना घन पात्र दान में लगा दिया उसने आग के जन्म के लिये अनन्त गणों सम्पत्ति वा स्वर्ग सम्पदा प्राप्त करने का साधन बना लिया । तपश्चरण करते हुए जिसको युवावस्था चली गई उसने उत्तम सुगन्धित देवों के शरीर को प्राप्त करने का या मोक्ष प्राप्त करने का साधन बना लिया तथा जिसने समाधि मरण पूर्वक मरण किया उसने अजर अमर पद प्राप्त करने का साधन बना लिया । इस प्रकार ऐसे जीवों को थोडी सी विभूति के बदले अतुल विभूति प्राप्त होती है। आगे और भी दान देने की प्रेरणा करते है। जह जह बढइ लच्छी तह तह दाणाई देह पत्तंसु । अवा होयइ जह जह देह विसेसेण सह तह यं ।। यथा यथा वर्तते लक्ष्मी तथा तथा दानानि देहि पात्रेषु । अथवा हीयते यथा यथा देहि विशेषेण तथा तथाएव ।। ५६८ ।। अर्थ- इसलिय श्रावकों का उचित है कि यह धन जितना जितना बढता जाय उतना उतना ही सुपात्रों को अधिक दान देता जाय । यदि कदाचित घन घटता जाय तो जितना जितना घटता जाय उत्तना उतना ही विशेष रूपसे अधिक दान' देता जाय । भावार्थ- लक्ष्मी के बढ़ने पर तो अधिक दान देना स्वाभाविक ही है । परन्तु जव लक्ष्मी घटने लगे तब समझना चाहिये कि यह लक्ष्मी अब ती जा रही है और चली ही जायगी इसलिये इमको और कामों में क्यों जाने दिया जाय इसको तो सुपात्र दान में ही दे देना चाहिये । यही समझकर लक्ष्मी के घटने पर भी विशेषरीति से सुपात्रों को अधिक दान देना चाहिये । आग जिनपूजा और पात्रदान न देनेवालों की दुर्गतियों का वर्णन करते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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