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मा.संग्रह
जेहि पर दिगं वाणं ण चावि पुज्जा किया जिगि दस । ते होणदोण दुग्गय भिक्खंण लहंति जायंता ।। ये न दत्तं वान न चापि पूजा कृता जिनेन्द्रस्य । ते होन, दीन, दुर्गत, भिक्षा न लभन्ते याचमानाः ।। ५६९ ॥
अर्थ- जो पुरुष न तो कभी ममवान जिनेन्द्र देव की पूजा करते और न कभी सुपात्रों का दान देते व पुरुष अत्यन्त दीन हीन हो जाते हैं उनकी जबरथा अत्यन्त दुर्गति रूप में परिणत हो जाती है और मांगने पर भी उनको ख नहीं मिलती ।
पर पेसगाइ गिच्च कति भतीए लह य णिय देहं । पूति ण णियय घरे परवस गासेण जीवति ।। पर पेषणादिकं नित्यं कुर्वन्ति भक्तया तथा च निजोदरम् । पूरन्ति न जिनगृहे पर वशनासेन जोवान्ति ।। ५७० ।।
अर्थ- जिन जीवों ने कभी जिनेन्द्रदेव की पूजन नहीं की है और न कभी पात्रों को दान दिया है ऐसे जीव भक्ति पूर्वक दूसरों का अन्न पीस पीस कर अपना पेट भरते है। तो भी उनको पेट भरने योग्य अन्न अपने घर में नहीं मिलता है। वे पर वश होकर दूसरों के अन्न के टुकड़ों से ही जावित रहत है
खंधेण वहति परं गासत्थं दीह पंथ समसंता । सं चेव विष्णवंता मुहकय कर विणय संजुत्ता।। स्कंधेन वहन्ति नर ग्रासार्थ दीर्घ पथ समासक्ताः ।
तमेव विनमन्तः मुखकृत कर विनय संयुक्ताः ।। ५७१ ।।
अर्थ-- जो पुरुष जिन पूजा और पात्र दान नहीं करते वे जीव परलोक में जाकर अन्न के टुकडों के लिए मनुष्यों को अपने कंधों पर रहकर (पालकी डोली पीनस आदि मे बिठाकर) बहुत दूर दूर तक ले जाते है तथा अपने मुख की दीन आकृति बनाकर और हाथ जोड़कर उसकी बहुत वडी विनय करते जाते है।
पहु तुम्ह समं जार्य कोमल अण्णाइ सुनु, सुहियाई । हर मह पियाई काऊ मलति पाया सहत्थेहि ।