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________________ २४८ भाव-संग्रह प्रभो युष्माभिः समं जातानि कोमलांगानि सुष्टु सुभगानि । __इति मुखप्रियाणि कृत्वा संवहन्ते पादान स्वहस्ताभ्याम् ।५७२। अर्थ- जिन पूजन और पात्र दान न करने वाले पुरुष परलोक मे अपने हाथ से दूसरों के पैर दाबते फिरते है और मुह से बडे मधुर गद्वों के द्वारा प्रिय शद्धों के द्वारा कहते जाते है कि हे प्रभो आपके शरीर के अंग बड़े ही कोमल है, बडे ही श्रेष्ठ और वहत ही सुन्दर है। रक्खंति गोगवाई छेलयखर तुरय छ । खलिहाणं । वर्णति कप्प बाई घडंति पिडउल्लयाई च ।। रक्षन्ति गोगवाविकं अजास्त्ररतुरग क्षेत्रवलिनान् । कुर्वन्ति कर्पटादिकं घटते पिठराविकानि ॥ ५७३ ।। अर्थ-- दान पूजा न करने वाले पुरुष परमव में गाय भैस नकरी गधा घोडा खेत खलिहान आदि की रखवाली करते रहते है और कितने ही लोग खाट पीढी आदि बढई के छोटे छोटे काम किया करते घावंति सत्यहत्था उपहं च गणसि तह य सोयाई । तुरय मह फेण सित्ता रयलिता गलियपायेसा ।। धावन्ति शस्त्र हस्ता उष्णं न गणयन्ति तथा च शोतादि । तुरग मुख फेन सिक्ता रजो लिप्ता गलित प्रस्वेदाः ।। ५७४ ।। अर्थ- दान पूजा न करने वाले कितने ही जीव हायमें शम्त्र कार द्रौइते है राजा महाराजाओं की सवारी के आग आगे दीडते है उस समय न तो वे धूप बा गर्मी को गिनते है और न शीत वा ठंडक को गिनते है। उस समय उनका शरीर घोड़ों के मुख से निकलते हुए फस मे भर जाता है, धूल उनके शरीर पर लिपट जाती है और पसीने की धार बंध जाती है। पिच्छिय पर महिलाओ घणमण मय णयण चंद वयणाई। ताजेइ णियंसीस सूरइ हिययम्मि वीण महो ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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